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(617) शूलचक्रासिकोदण्डैरुधुक्ताः सत्त्वखण्डने। येऽधमास्तेऽपि निस्त्रिशैर्देवत्वेन प्रकल्पिताः॥
___(ज्ञा. 8/36/508) जो त्रिशूल, चक्र, तलवार और धनुष इत्यादि शस्त्रों से जीवों को घात करने में उद्यत हैं, ऐसे चंडी, काली, भैरवादिकों को भी देवता मान कर जो दयाहीन लोग उनकी स्थापना करते हैं, वे अधम हैं।
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सग्रन्थारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्। पाखण्डिनां पुरस्कारो, ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ॥
(रत्नक. श्रा. 24) ॥ परिग्रह, आरम्भ और हिंसा-सहित (हिंसक) पाखण्डी (झूठे) साधुओं का आदर, 卐 सन्मान, भक्ति-पूजा आदि करना गुरु-मूढता (पाखण्डिमूढता) कहलाती है।
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अहिंसा-विश्वकोश/263]