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________________ 明明明明明明明出 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEE EE {525) म सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सण्णिणो होच्चा असण्णियो होति. असण्णिणो 卐 होच्चा सण्णिणो होंति, होज्ज सण्णी अदुवा असण्णी, तत्थ से अविविंचिया अविधूणिया असमुच्छिया अण्णुताविया सण्णिकायाओ सण्णिकार्य संकमंति 1, सण्णिकायाओ वा असण्णिकायं संकमंति 2, असण्णिकायाओ वा सण्णिकायं संकमंति 3, म असण्णिकायाओ वा असण्णिकायं संकमंति 4। जे एते सण्णी वा असण्णी वा सव्वे मते मिच्छायारा निच्चं पसढविओवातचित्तदंडा,तं. पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले। एवं खलु भगवता अक्खाते असंजए अविरए अप्पडिहयपच्च-क्खयपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमण-वसय-काय-वक्के, 卐 सुविणमवि अपासओ पावे य से कम्मे कज्जति। (सू.कृ. 2/4/752) सभी योनियों के प्राणी निश्चित रूप से संज्ञी होकर असंज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं। वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहां पापकर्मों को अपने से अलग (पृथक्) न करके, तथा उन्हें न झाड़ कर (तप आदि से उनकी निर्जरा न करके), (प्रायश्चित्त आदि से) उनका उच्छेद न करके तथा (आलोचना निन्दना-गर्हणा आदि से) उनके लिए पश्चात्ताप न करके वे संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर 卐 में आते (जन्म लेते) हैं, अथवा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते (आते) ॥ ॐ हैं, अथवा असंज्ञीकाय से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं अथवा असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में आते (संक्रमण करते) हैं। जो ये संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सब मिथ्याचारी और सदैव शठतापूर्वक 卐 हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं। इसी कारण से ही भगवान् महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान न करने वाले, अशुभक्रियायुक्त, संवररहित, एकान्त हिंसक (प्राणियों को दंड देने वाले), एकान्तबाल (अज्ञानी) और म एकान्त (भावनिद्रा)सुप्त कहा है। वह अज्ञानी (अप्रत्याख्यानी) जीव भले ही मन, वचन, ॐ काया और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता है हो,- (अव्यक्तविज्ञानयुक्त हो) फिर भी पापकर्म (का बंध) करता रहता है। [असंज्ञी-संज्ञी दोनों प्रकार अप्रत्याख्यानी प्राणी सदैव पापरत-उपर्युक्त सूत्रों में शास्त्रकार ने प्रत्याख्यानरहित) 卐 सभी प्रकार के प्राणियों को सदैव पापकर्म बंध होते रहने का सिद्धान्त दृष्टान्तपूर्वक यथार्थ सिद्ध किया। इस त्रिसूत्री卐 卐 में से प्रथम सूत्र में प्रथम सूत्र में प्रश्न उठाया है, जिसका उक्त सूत्रों द्वारा समाधान किया गया है। 卐 नाव [संजीर .ויפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפתבתכתבתבהפתפתתפתפתפתפתלהלהלהלמר [जैन संस्कृति खण्ड/234
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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