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________________ S )))) )))) 1482 तओ से दण्डं समारभई तसेसु थावरेसु य। अठ्ठाए य अणट्ठाए भूयग्गामं विहिंसई ॥ (उत्त. 5/8 फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड (घातक उपकरण) का प्रयोग करता है। प्रयोजन से अथवा कभी निष्प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है। 1483} $$$$$$$$$$$$$$}$$$$$$$$$~~~~~~弱弱弱弱弱 जं जीवणिकायवहेण विणा इंदियकयं सुहं णत्थि। तम्हि सुहे णिस्संगो तम्हा सो रक्खदि अहिंसा ।। (भग. आ. 810) चूंकि छहकाय के जीवों की हिंसा के विना इन्द्रियजन्य सुख नहीं होता। विचित्र प्रकार से स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला आदि का सेवन जीवों को पीड़ा करने वाला होता है, क्योंकि बहुत आरम्भ (हिंसा) करने के बाद उस सुख की प्राप्ति होती है। अतः जो इन्द्रिजन्य सुख में आसक्त नहीं है, वही अहिंसा की रक्षा करता है। जो इन्द्रिय-सुख का अभिलाषी है, 卐 वह नहीं रक्षा करता । अतः इन्द्रियसुख का आदर करना उचित नहीं है। ~~~~~~~卵~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~羽耶 {484) अडईगिरिदरिसागरजुद्धाणि अडंति अत्थलोभादो।। (भग. आ. 854) धन के लोभ से मनुष्य जंगल, पर्वत, गुफा और समुद्र में भटकता है, युद्ध करता है। 1485) दुक्खस्स पडिगरेंतो सुहमिच्छंतो य तह इमो जीवो। पाणवधादी दोसे करेइ मोहेण संछण्णो॥ दोसेहिं तेहिं बहुगं कम्मं बंधदि तदो णवं जीवो। अध तेण पच्चइ पुणो पविसित्तु व अग्गिमग्गीदो॥ (भग. आ. 1789-90) मोह से आच्छादित यह जीव दुःख से बचने का उपाय करता है, इन्द्रिय-सुख की अभिलाषा रखता है और उसके लिए हिंसा आदि दोषों को करता है। उन हिंसा आदि दोषों को करने से जीव बहुत-सा नया कर्म बांधता है। कर्मबन्ध के पश्चात् उस कर्म का फल भी भोगता है। इस प्रकार जैसे कोई एक आग से निकलकर दूसरी आग में प्रवेश करके कष्ट 卐उठाता है, वैसे ही पूर्वबद्ध कर्मों को भोग कर पुनः नवीन कर्मरूपी आग में जलता है। [जैन संस्कृति खण्ड/210
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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