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________________ .. {408) सा मिथ्याऽपि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी॥ (उपासका. 28/284) ___ जो वचन गुरु आदि (श्रेष्ठ) जनों को प्रसन्न करने वाला होता है, वह मिथ्या होते हुए 卐 भी मिथ्या नहीं है। 卐Oहिंसात्मक पीड़ाकारी वचन त्याज्य (409) न सत्यमपि भाषेत परपीड़ाकरं वचः। लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् कौशिको नरकं गतः। (है. योग. 2/61) जिससे दूसरों को पीड़ा हो, ऐसा सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि यह लोकश्रुति है कि ऐसे वचन बोलने से कौशिक नरक में गया था। {410 तत्सत्यमपि नो वाच्यं यत्स्यात्परविपत्तये। जायन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पदाः॥ (उपासका. 28/377) 卐 ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए, जिससे दूसरों पर विपत्ति आती हो या अपने के ऊपर दुर्निवार संकट आता हो। {411) __सच्चं वि य संजमस्स उवरोहकारगं किंचि ण वत्तव्वं, हिंसासावजसंपउत्तं ॥ भेयविकहकारगं अणत्थवायकलहकारगं अणजे अववाय-विवायसंपउत्तं वेलंब ओजधेजबहुलं णिल्लज लोयगरहणिज्ज...। (प्रश्न. 2/2/सू.120) जो सत्य संयम में बाधक हो-रुकावट पैदा करता हो, वैसा तनिक भी नहीं बोलना चाहिए (क्योंकि जो वचन तथ्य होते हुए भी हितकर नहीं, प्रशस्त नहीं, हिंसाकारी है, वह सत्य में परिगणित नहीं होता)। जो वचन (तथ्य होते हुए भी) हिंसा रूप पाप से अथवा NEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEFFET अहिंसा-विश्वकोश|1811
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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