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卐 वे महात्मा इस प्रकार उग्र विहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन
करते हैं। रोगादि अनेकानेक बाधाओं के उपस्थित होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग करते हैं। वे अनेक दिनों तक भक्त प्रत्याख्यान' (संथारा) करके उसे पूर्ण
करते हैं। अनशन (संथारे) को पूर्णतया सिद्ध करके जिस प्रयोजन से उन महात्माओं द्वारा ॥ ॐ नग्नभाव, मुण्डित भाव, अस्नान भाव, अदन्त धावन (दांत साफ न करना), छाते और जूते .
का उपयोग न कराना, भूमि-शयन, काष्ठफलक- शयन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्य-वास (या ब्रह्मचर्य-गुरुकुल में निवास), भिक्षार्थ परगृह-प्रवेश आदि कार्य किए जाते हैं, तथा जिसके
लिए लाभ और अलाभ (भिक्षा में कभी आहार प्राप्त होना, कभी न होना), मान-अपमान, ' ॐ अवहेलना, निन्दा, फटकार, तर्जना (झिड़कियां), मार-पीट (ताड़ना), धमकियां और
ऊंची-नीची बातें, एवं कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन आदि बाईस प्रकार के
परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं, (तथा जिस उद्देश्य से वे महामुनि साधु-धर्म 卐 में दीक्षित हुए थे) उस उद्देश्य (लक्ष्य) की आराधना कर लेते हैं। उस उद्देश्य की आराधना 卐 (सिद्धि) करके अंतिम श्वासोच्छ्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, (निराबाध),निरावरण,
संपूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। केवलज्ञान-केवलदर्शन
उपार्जित करने के पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं; 卐 परिनिर्वाण (अक्षय शांति) को प्राप्त कर लेते हैं, और समस्त दुःखों का अंत कर देते हैं। 卐 कई महात्मा एक ही भव (जन्म) में संसार का अंत (मोक्ष प्राप्त) कर लेते हैं।
दूसरे कई महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने के कारण मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं।
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O अहिंसाः संवर-द्वार
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(346) पढम होइ अहिंसा, बिइयं सच्चवयणं ति पण्णत्तं । दत्तमणुण्णाय संवरो य, बंभचेरमपरिग्गहत्तं च॥
(प्रश्न. 2/1/104) पांच संवरद्वारों में प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्य वचन है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से ही दत्त का ग्रहण (अदत्तादानविरमण) है, चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रह है।
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अहिंसा-विश्वकोश।161)