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________________ 听听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明明明明明 明明明明明明明明明明明 {345) है । इह खलु पाईणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा है ॐ धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीलाई सुव्वता सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वातो पाणातिवायातो पडिविरता जावज्जीवाए जाव जे यावऽण्णे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जंति ततो वि पडिविरता जावज्जीवाए।............................. ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूहं वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, ॐ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आबाहंसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पणंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति, [बहूई भत्ताइं] पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, बहूणि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता जस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणगे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा है केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्ध-माणावमाणणाओ हीलणाओ 卐 निंदणाओ खिंसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिजंति तमढें आराहें ति, तमढं आराहित्ता चरमेहि उस्सासनिस्सासेहिं अणंतं अणुत्तरं निव्वाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदसणं समुप्पाडेंति, समुप्पाडित्ता ततो पच्छा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायंति फसव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, एगच्चा पुण एगे गंतारो भवंति, अवरे पुण पुवकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। . (सू.कृ. 2/2/714) इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई पुरुष ऐसे होते हैं, जो अनारम्भ (आरम्भ रहित), अपरिग्रह (परिग्रह-विरत) होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृत्ति 卐करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, या धर्मप्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्ममयजीवी, धर्म को ही देखने वाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्माचारपरायण होते हैं, यहां तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवनयापन करते हैं, जो सुशील, सुव्रती, शीघ्र सुप्रसन्न होने वाले (सदानन्दी) और उत्तम के सुपुरुष होते हैं। जो समस्त प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक जीवन भर विरत रहते है 卐 हैं। जो स्नानादि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, समस्त गाड़ी, घोड़ा, रथ आदि वाहनों से 5 * आजीवन विरत रहते हैं, क्रय-विक्रय, पचन, पाचन, सावध कर्म करने-कराने, आरम्भ समारम्भ आदि से आजीवन निवृत्त रहते हैं, स्वर्ण-रजत धनधान्यादि सर्वपरिग्रह से आजीवन निवृत्त रहते हैं, यहां तक कि वे परपीड़ाकारी समस्त सावद्य अनार्य कर्मों से भी यावज्जीवन विरत रहते हैं। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN [जैन संस्कृति खण्ड/160 如明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 घ
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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