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(333 कहं णं भंते! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?
गोयमा! नो पाणे अतिवातित्ता, नो मुसं वइत्ता, ताहरूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, अन्नतरेणं मणुण्णेणं पीतिकारएणं असणपाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति।
(व्या. प्र. 5/6/4) [प्र.] भगवन् ! जीव शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म किन कारणों से बांधते हैं? _ [उ.] गौतम! प्राणहिंसा न करने से, असत्य न बोलने से, और तथारूप श्रमण या ॐ माहन को वन्दना, नमस्कार यावत् पर्युपासना करके मनोज्ञ एवं प्रीतिकारक अशन, पान,
खादिम और स्वादिम देने (प्रतिलाभित करने) से। इस प्रकार जीव (इन तीन कारणों से ) शुभ दीर्घायु का कारणभूत कर्म बांधते हैं।
(334) चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- पगतिभद्दताए, ॥ पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए।
(ठा. 4/4/630) चार कारणों से जीव मनुष्यायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं। जैसे
1. प्रकृति-भद्रता से, 2. प्रकृति-विनीतता से, 3. सानुक्रोशता से (दयालुता और ॐ सहृदयता से), तथा 4. अमत्सरित्व से (मत्सर-भाव न रखने से)।
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{335 स्वभावादार्जवोपेताः स्वभावान्मृदवो मताः। स्वभावाद् भद्रशीलाश्च स्वभावात् पापभीरवः ।। प्रकृत्या मधुमांसादिसावद्याहारवर्जिताः। अर्जयन्ति सुमानुष्यं कुमानुष्यं कुकर्मभिः ।।
(ह. पु. 3/125-126) जो मनुष्य स्वभाव से ही सरल हैं, स्वभाव से ही कोमल हैं, स्वभाव से ही भद्र हैं, 卐 स्वभाव से ही पाप-भीरु हैं और स्वभाव से ही मधु-मांसादि सावद्य आहार के त्यागी हैं, वे )
उत्तम मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं तथा जो खोटे (हिंसादि सावद्य) कर्म करते हैं वे खोटी । 9 (दुर्दशापूर्ण) मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं।
E FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/154
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