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________________ उपद्रव न हो, अतः परित्राणहेतु भी नहीं मारता, अपितु निष्प्रयोजन (बिना किसी अर्थ या है निमित्त के) ही वह मूर्ख (बाल) प्राणियों को दंड देता हुआ उन्हें (दंड आदि से) मारता है, उनके (कान नाक आदि) अंगों का छेदन करता है, उन्हें शूल आदि से भेदन करता है, उन 卐 प्राणियों के अंगों को अलग-अलग करता है, उनकी आंखें निकालता है, चमड़ी उधेड़ता है, उन्हें डराता-धमकाता है, अथवा परमाधार्मिकवत् अकारण ही नाना उपायों से उन्हें पीड़ा । पहुंचाता है, तथा प्राणों से रहित भी कर देता है। वह सद्विवेक का त्याग करके या अपना 卐 आपा (होश) खो कर (अविचारपूर्वक कार्य करने वाला) तथा निष्प्रयोजन त्रस प्राणियों को उत्पीड़ित (दंडित) करने वाला वह मूढ़ प्राणी अन्य प्राणियों के साथ (जन्म-जन्मान्तरानुबंधी) वैर का भागी बन जाता है। 2. कोई पुरुष, ये जो स्थावर प्राणी हैं, जैसे कि इक्कड़, कठिन, जंतुक, परक, 卐 मयूरक, मुस्ता (मोथा), तृण (हरीघास), कुश, कुच्छक (कर्चक) पर्वक और पलाल (पराल) नामक विविध वनस्पतियां होती हैं, उन्हें निरर्थक दंड देता है। वह इन वनस्पतियों । को पुत्रादि के पोषणार्थ या पशुओं के पोषणार्थ, या गृहरक्षार्थ, अथवा श्रमण एवं माहन 卐 (ब्राह्मण) के पोषणार्थ दंड नहीं देता, न ही ये वनस्पतियां उसके शरीर की रक्षा के लिए कुछ ॐ काम आती हैं, तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खंडन, मर्दन, है उत्पीड़न करता है, उनमें भय उत्पन्न करता है, या जीवन से रहित कर देता है। विवेक को तिलांजलि दे कर वह मूढ़ व्यर्थ ही (वनस्पतिकायिक) प्राणियों को दंड देता है और 卐 (जन्मजन्मान्तर तक) उन प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है। 3. जैसे कोई पुरुष (सद-असद्विवेक रहित हो कर) नदी के कच्छ (किनारे) पर, भद्रह (तालाब या झील) पर, या किसी जलाशय में, अथवा तृणराशि पर, तथा नदी आदि द्वारा # घिरे हुए स्थान में, अंधकारपूर्ण स्थान में अथवा किसी गहन-दुष्प्रवेशस्थान में, वन में या ॐ घोर वन में, पर्वत पर या पर्वत के किसी दुर्गम स्थान में तृण या घास को बिछा-बिछा कर, फैला-फैला कर अथवा ऊंचा ढेर करके, स्वयं उसमें आग लगाता (जला डालता) है, अथवा दूसरे से आग लगवाता है, अथवा इन स्थानों पर आग लगाते (या जलाते) हुए अन्य 卐 व्यक्ति का अनुमोदन-समर्थन करता है, वह पुरुष निष्प्रयोजन प्राणियों को दंड देता है। इस प्रकार उस पुरुष को व्यर्थ ही (अग्निकायिक तथा तदाश्रित अन्य त्रसादि) प्राणियों के घात के कारण सावध (पाप) कर्म का बंध होता है। (यह दूसरा अनर्थदंडप्रत्ययिक क्रियास्थान 卐 कहा गया है।) 明明明明明明明明明明明 明明明明明明明 明明明明明明明明明 צ ועת הכתובתכתבתפציפהפיכתבתם ELELELELELELELELELELEDERERENCETHERELELLELEUDEAURLADALALAB अहिंसा-विश्वकोश।।33) ת
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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