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________________ HEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEFTHE 卐 2. जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव (कोंदो), कंगू, परक और राल नामक धान्यों (अनाजों) को शोधित (साफ) करता हुआ किसी तृण (घास) को काटने के लिए 卐 शस्त्र (हंसिया या दांती) चलाता है, और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद आदि घास को काटूं' ॐ ऐसा आशय होने पर भी (लक्ष्य चूक जाने से) शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है। इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दंड 卐 (प्राणिहिंसा) अन्य को स्पर्श करता है। यह दंड भी, घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण, अकस्माद्ड कहलाता है। इस प्रकार अकस्मात् (किसी जीव को) दंड के कारण उस घातक पुरुष को (उसके निमित्त से) सावध कर्म का बंध होता है। अत: यह चतुर्थ क्रियास्थान अकस्माइंड प्रत्ययिक कहा गया है। {290) पढमे दंडसमादाणे । अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिजति से। जहानामए केइ पुरिसे आतहेउं वा णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेठं वा मित्तहेठं वा णागहउँ वा भूतहेउं वा 卐 जक्खहेउं वा तं दंडं तस- थावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरति, अण्णेण वि णिसिरावेति, ॐ अण्णं पि णिसिरंतं समणुजाणति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजे ति आहिजति, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिते। (सू.कृ. 2/2/ सू. 695) प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदंडप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कि 卐 कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए, अपने घर या परिवार के लिए, मित्रजनों के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष आदि के लिए स्वयं त्रस और स्थावर जीवों को दंड देता है (प्राणिसंहारिणी क्रिया करता है); अथवा (पूर्वोक्त कारणों से), दूसरे से दंड दिलवाता है; अथवा दूसरा दंड दे रहा हो, उसका अनुमोदन करता है। ऐसी स्थिति में उसे उस सावध म क्रिया के निमित्त से पापकर्म का बंध होता है। यह प्रथम दंडसमादान अर्थदंडप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है। [दंड-हिंसादि पाप से सम्बन्धित संकल्प, जो जीव को दंडित करता है, उसका समादान यानी ग्रहण ही की 'दंडसमादान' है। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा-विश्वकोश||31)
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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