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________________ REFREETTEEREYSERSEEEEEEEEEEEEEE PO हिंसा से असातावेदनीय (दुःखदायी) कर्म का बन्ध {255) कहं णं भंते ! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति? गोयमा! परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए 卐 परपरितावणयाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणताए सोयणयाए जावई परितावणयाए, एवं खलु गोयमा! जीवाणं असातावेदणिज्जा कम्मा कजंति। ___ (व्या. प्र. 7/6/28) [प्र.] भगवन्! जीवों के असातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं? [उ.] गौतम ! दूसरों को दुःख देने से, दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न करने से, जीवों 卐को विषाद या चिन्ता उत्पन्न करने से, दूसरों को रुलाने या विलाप कराने से, दूसरों को पीटने से और जीवों को परिताप देने से, तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों को दुःख पहुंचाने से, शोक उत्पन्न करने से यावत् उनको परिताप देने से (जीवों के असातावेदनीय 卐कर्मबन्ध होता है।) हे गौतम! इस प्रकार से जीवों के असातावेदनीय कर्म बंधते हैं। 出弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 (256) अस्सायावेयणिज्ज0 पुच्छा। गोयमा! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा-उ (छठ्ठ) की देसए जाव परियावणयाए (स. 7 उ. 6 सु. 28) अस्सायावेयणिजकम्मा जाव पयोगबंधे। (व्या. प्र. 8/9/101) [प्र.] भगवन्! असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से 卐 होता है? [उ.] गौतम! दूसरे जीवों को दुःख पहुंचाने से, उन्हें शोक-युक्त करने से [इत्यादि, जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के) सातवें शतक के 'दुःषम' नामक छठे उद्देशक (के सूत्र 28) में कहा है, उसी प्रकार यहां भी, यावत्-] उन्हें परिताप देने से तथा असातावेदनीय-कर्म卐 शरीरप्रयोग- नामकर्म के उदय से असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। ) [जैन संस्कृति खण्ड/116
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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