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________________ {2421 $}%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%弱弱弱弱弱弱弱弱 हिंसा प्राणिषु कल्मषं भवति सा प्रारम्भतः सो ऽर्थतः, तस्मादेव भयादयोऽपि नितरां दीर्घा ततः संसृतिः। (पद्म. पं. 1/52) प्राणियों की हिंसा 'पाप' है। किन्तु इस के पीछे 'प्रारम्भ' (प्रकृष्ट आरम्भ, अर्थात् ॥ प्राणि-वध का संकल्प) होता है। वह 'प्रारम्भ' भी धन-सम्पत्ति (अनुचित परिग्रह) के कारण होता है। 'हिंसा' सम्बन्धी पाप से 'भय' आदि का प्रादुर्भाव होता है, और उसके म परिणाम-स्वरूप एक सुदीर्घ जन्म-मरण की परम्परा प्रवर्तमान होती है। (243) शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम्। सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाऽशुभं पुनः॥ (है. योग. 4/77) सावद्य-कुचेष्टाओं से सुगुप्त (बचाये हुए) शरीर से शरीरी (जीव) शुभकर्मों का संचय करता है, जबकि सतत आरम्भ में प्रवृत्त रहने वाले या प्राणियों की हिंसा करने वाले शरीर से वही जीव अशुभ कर्मों का संग्रह करता है। 35%弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱明 (244) पंगु-कुष्टि-कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥ ' (है. योग.2/19) हिंसा का फल लंगड़ापन, कोढ़ीपन, हाथ-पैर आदि अंगों की विकलता आदि के के रूप में देखा जाता है। इसे देख कर बुद्धिमान्-पुरुष निरपराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक ॐ हिंसा का त्याग करे। {245} कुणिर्वरं वरं पङ्गुरशरीरी वरं पुमान् । अपि सम्पूर्णसांगो, न तु हिंसापरायणः॥ (है. योग. 2/28) लूले, लंगड़े, अपाहिज (विकलांग) और कोढ़िये भी, यदि वे हिंसा नहीं करते हों तो, श्रेष्ठ हैं, मगर संपूर्ण अंग वाले हिंसाकर्ता हों तो वे श्रेष्ठ नहीं। FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFER अहिंसा-विश्वकोश।109]
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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