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इस प्रकार हिंसा एक ने की परन्तु फल अनेक लोगों ने भोगा। जैसे द्रव्यहिंसा अनेक जीव करते हैं, परन्तु भावहिंसा के अभाव में उस हिंसा का फल एक ही जीव भोगता है। [जैसे- युद्ध में हिंसा तो अनेक सैनिक करते हैं, परन्तु उस हिंसा का फल राज्य के प्रति स्वामित्व-बुद्धि होने के कारण राजा को ही भोगना होगा।]
इस प्रकार हिंसा अनेक करते हैं परन्तु भोगने वाला एक होता है।
{177) कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले। अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम्॥
__(पुरु. 4/20/56) ___ (अन्तरंग-परिणामों के अनुरूप हिंसा-फल को प्राप्त करने के कारण) किसी पुरुष को तो हिंसा उदयकाल में एक ही फल देती है और दूसरे किसी को वही हिंसा बहुत अहिंसा 卐 का फल देती है।
{178)
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे। इतरस्य पुनहिँसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ॥
(पुरु. 4/21/57) 卐 किसी को अहिंसा का कार्य भी उदयकाल में (अन्तरंग में अशुभ भावों के कारण) ज हिंसा का फल देता है तथा दूसरे किसी को हिंसा भी (जीव-रक्षा आदि शुभ परिणामों के 卐 ॐ कारण) अहिंसा का ही फल देती है, और कुछ नहीं।
{179) प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृताऽपि। आरभ्य कर्तुमकृताऽपि फलति हिंसानुभावेन ।।
___ (पुरु. 4/18/54) (भाव-हिंसा की प्रधानता के कारण) कोई हिंसा पहले फल देती है, कोई करतेकरते फल देती है, कोई कर लेने के बाद फल देती है और कोई हिंसा करने का (संकल्प है ॐ-रूप) आरम्भ करके न किये जाने पर भी फल देती है।
או הלהלהבהבהבהרתברברפרברברפרברפרברביבחברתכתבתכתבתבבבבבבבב