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________________ FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE EE (164) केचिन्मांसं महामोहादश्नन्ति न परं स्वयम्। देवपित्रतिथिभ्योऽपि कल्पयन्ति यदूचिरे ॥ क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव वा। देवान् पितॄन् समभयर्च्य, खादन् मांसं न दुष्यति॥ (है. योग. 3/30-31) कितने ही लोक महामूढ़ता से केवल स्वयं ही मांस खाते हों, इतना ही नहीं, बल्कि ॐ देव, पितर आदि पूर्वजों और अतिथि को भी कल्पना करके (पूजा आदि की दृष्टि से) मांस देते या चढ़ाते हैं। क्योंकि उनका कहना है कि 'स्वयं मांस खरीद कर, अथवा किसी जीव को मार कर स्वयं उत्पन्न करके, या दूसरों से (भेंट से) प्राप्त करके उस मांस से देव और पितरों की पूजा करके (देवों और पितरों को चढ़ा कर) बाद में उस मांस को यदि कोई खाता है तो वह व्यक्ति मांसाहार के दोष से दूषित नहीं होता। (उनका उक्त कथन महामोह अर्थात् # अज्ञान के कारण है।) O हिंसा के सम्बन्ध में सापेक्ष सिद्धान्त (आगगिक दृष्टि) {165) पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणति, नोपुरिसं हणति? गोयमा! पुरिसं पि हणति, नोपुरिसे वि हणति। (व्या. प्र. 9/34/2 (1)) [प्र.] भगवन्! कोई पुरुष, पुरुष का घात करता हुआ क्या पुरुष का ही घात करता है अथवा नोपुरुष (पुरुष के सिवाय अन्य जीवों) का भी घात करता है? [उ.] गौतम! वह (पुरुष) पुरुष का भी घात करता है और नोपुरुष का भी घात 卐ty करता है। [जैन संस्कृति खण्ड/12
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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