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___{67} अहिंसा समता शान्तिरानृशंस्यममत्सरः। द्वाराण्येतानि मे विद्धि॥
(म.भा. 3/314/8) (यक्षवेषधारी धर्मराज का युधिष्ठिर को उपदेश-)अहिंसा, समता, शान्ति, दया और अमत्सरता (डाह का न होना)-ये मेरे पास पहुंचने के द्वार हैं- ऐसा समझना चाहिए।
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न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽन्यांश्च देहिनः। यो मनुष्यो मनुष्येन्द्र तोष्यते तेन केशवः॥
(वि.पु. 3/8/15) हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य किसी प्राणी अथवा (वृक्षादि) अन्य देहधारियों को पीड़ित ॐ अथवा नष्ट नहीं करता, उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रहते हैं।
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{69} अप्रमादोऽविहिंसा च ज्ञानयोनिरसंशयम्॥
(म.भा. 5/69/18) प्रमाद से दूर रहना तथा किसी भी प्राणी की हिंसा न करना-ये निश्चय ही 'ज्ञान' (तत्त्व-ज्ञान) के उत्पादक हैं।
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कानि कर्माणि धाणि लोकेऽस्मिन् द्विजसत्तम। न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा॥ श्रृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि। यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा॥
__(म.भा.12/296/35-36) (राजा जनक का पराशर मुनि से प्रश्न-) द्विजश्रेष्ठ! इस लोक में कौन-कौन से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनका अनुष्ठान करते समय कभी किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं होती है
(अपितु रक्षा होती है)? - (पराशर मुनि का राजा जनक को उत्तर) महाराज! तुम जिन कर्मों के विषय में पूछ ।
रहे हो, उन्हें बताता हूं, मुझ से सुनो। जो कर्म हिंसा से रहित हैं, वे ही सदा मनुष्य की रक्षा
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अहिंसा कोश/19]