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___{1031} न कूटैरायुधैर्हन्याधुध्यमानो रणे रिपून्। न कर्णिभिर्मापि दिग्धैर्नानिज्वलिततेजनैः॥
(म.स्मृ.-7/90) युद्ध करता हुआ (राजा या कोई योद्धा) कूटशस्त्र (बाहर में लकड़ी आदि तथा * भीतर में घातक तीक्ष्णशस्त्र या लोहा आदि से युक्त शस्त्र); कर्णि के आकार वाले फल ॐ (बाण का अगला भाग), विषादि में बुझाये गये, तथा अग्नि से प्रज्वलित होनेवाले अर्थात् # अंत में आग का गोला बन कर संहार करने वाले (अणुबम आदि) अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं म को न मारे।
[टिप्पणी:- आज की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में परमाणु-अस्त्रों, रासायनिक व जैविक अस्त्रों का प्रयोग युद्ध में करना धर्मविरुद्ध कहा जायेगा।]
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{1032} इषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम्। यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्धयेत जिघांसतः॥
(म.भा. 12/95/11) युद्ध में विषलिप्त और कर्णी (नामक तीक्ष्ण) बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये। ॐ ये दुष्टों के अस्त्र हैं। यथार्थ (सर्वमान्य) रीति से युद्ध करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति युद्धक * में किसी का वध करना चाहता हो तो उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये (किन्तु यथायोग्य 卐 प्रतीकार करना चाहिये)।
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{1033} कर्म चैतदसाधूनामसाधून् साधुना जयेत्।। धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा।
(म.भा. 12/95/16-17) छल-कपट का काम तो दुष्टों का काम है। श्रेष्ठ पुरुष को तो दुष्टों पर भी धर्म से ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है;परंतु पापकर्म के द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है।
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EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/304