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________________ “明明明明明明明明明明明明明明明男男男男男男男男%%%%%%%%%% {978} न युद्धे तात कल्याणं न धर्मार्थी कुतः सुखम्। (म.भा. 5/129/40) युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उससे धर्म और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है? हिंसक युद्ध की विद्वेष-पूर्ण आगः पीढ़ी-दर-पीढ़ी {979} जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा। अनिवृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि। (म.भा. 5/72/60-61) __ किसी से वैर बांधने वाला पुरुष उद्विग्नचित्त होकर सदा उसी तरह दुःख की नींद म सोता है जैसे सो से भरे घर में रहने वाला व्यक्ति। 明明明明明乐乐听听听听听玩玩乐乐垢玩垢玩垢听听听听听听听听听听听听听听听听听听纸纸坑坎听听听听听 {980} उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते। अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं सोऽधिगच्छति। ____ (म.भा. 5/72/61-62) जो शत्रु के कुल में आबालवृद्ध सभी पुरुषों का उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचित यश से वंचित हो जाता है। वह सभी लोगों में उस अपकीर्ति (निन्दा) का भागी होता है जो कभी समाप्त नहीं होती। 1981) न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति॥ हविषाऽग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते। ___ (म.भा. 5/72/63-64) जैसे घी डालने पर आग बुझने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करने से वैर की आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। %%%% %%% % % % %% %%%%%、 %%%%% %%% वैिदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/288
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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