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अहिंसा और अध्यात्म-साधना
[मनुष्यत्व-देवत्व-परमात्मपद-इन क्रमिक सोपानों पर अग्रसर होने हेतु अनेक साधनाएं हैं। गीता का कर्मयोग हो या योगसूत्र की योग-साधना, अनासक्ति का ज्ञान-मार्ग हो या कठोर तपश्चर्या, सभी में अहिंसा'को जीवन में प्रतिष्ठित किये बिना लक्ष्य-सिद्धि नहीं हो पाती। इसी विषय-वस्तु को प्रतिबिम्बित करने वाले कुछ शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं-]
{879) आनृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसा च दमः स्पृहा। ध्यानं प्रसादो माधुर्यं चार्जवं च यमा दश॥
__ (वि. ध. पु. 3/233/203) (1)आनृशंस्य (दया/कोमलता), (2)क्षमा, (3) सत्य (4) अहिंसा, (5) दमक (इन्द्रिय-निग्रह), (6) (मोक्ष की) स्पृहा, (7) ध्यान, (8) प्रसाद (प्रसन्नता), (9) मधुरता तथा (10) ऋजुता-सरलता- ये दस 'यम' हैं।
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अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। यमाः संक्षेपतः प्रोक्ताश्चित्तशुद्धिप्रदा नृणाम्॥
(कू.पु. 2/11/13) __ अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह-ये पांच 'यम' हैं, जो योग-साधना के प्राथमिक आधार हैं और (मुमुक्षु) लोगों के लिए चित्त-शुद्धि के उपाय/साधन हैं।
{881} ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान्। सेवेत योगी निष्कामः योगितां स्वमनोनयन्॥
(ना. पु. 1/47/12) योग-साधक को चाहिए कि वह निष्काम रूप से योग-साधना को अंगीकार करते * हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अचौर्य व अपरिग्रह- इनका आश्रयण ले।
NEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/250