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________________ 55 N EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {861} शुनां च पतितानां च श्वपचा पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥ (म.स्मृ. 3/92) (देवयज्ञ के बाद, भूत-यज्ञ का सम्पादन इस प्रकार है-) कुत्ता, पतित, चाण्डाल, # पापजन्य (कुष्ठ या यक्ष्मा आदि) रोग से युक्त व्यक्ति, कौवा, कीड़ा-इन सूक्ष्म व अत्यन्त उपेक्षित प्राणियों के लिये धीरे से ( जिससे धूलि आदि से नष्ट अन्न नहीं हो) अवशिष्ट कुछ अन्न को पात्र से निकालकर, पृथक् रख देवे। 5 {862} चतुर्दशो भूतगणो य एष तत्र स्थिता येऽखिलभूतसंघाः। तृप्त्यर्थमन्नं हि मया विसृष्टं तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु॥ इत्युच्चार्य नरो दद्यादन्नं श्रद्धासमन्वितः। भुवि सर्वोपकाराय गृही सर्वाश्रयो यतः॥ (वि.पु. 3/11/55-56) यह जो चौदह प्रकार का भूतसमुदाय है, उसमें जितने भी प्राणिगण अवस्थित हैं, उन सब की तृप्ति के लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है, वे इससे प्रसन्न हों। इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवों के उपकार के लिये पृथिवी में अन्नदान करें, क्योंकि गृहस्थ ही सबका आश्रय है। 555555555555555555555555555 : 1863 देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धास्सयक्षोरगदैत्यसंघाः। प्रेताः पिशाचास्तरवस्समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मयाऽत्र दत्तम्॥ पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः। प्रयान्तु ते तृप्तिमिदं मयाऽन्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ (वि.पु. 3/11/51-52) (प्राणियों को अन्न-दान करते समय गृहस्थ द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले भाव-) 'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा अन्य भी चींटी आदि कीट पतङ्ग जो अपने कर्मबन्धन से बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्न की इच्छा करते है हैं, उन सब के लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ। वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों।' 男男男男男男男男男男男男明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明外 अहिंसा कोश/245]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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