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________________ TAKXIXEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ma (म.स्मृ. 3/68-72) गृहस्थ के लिये चुल्ही, चक्की (जांता), झाडू, ओखली-मुसल और जल का घटये पांच पाप/हिंसा के स्थान हैं; इन वस्तुओं का उपयोग करता हुआ गृहस्थ अनजाने में होने वाली जीव-हिंसा के पाप से बंधता (पापभागी होता) है। उन सबों की निवृत्ति के लिये महर्षियों ने पञ्च महायज्ञ करने का विधान गृहस्थाश्रमियों के लिये बतलाया है। वेद का * अध्ययन और अध्यापन करना 'ब्रह्मयज्ञ' है, तर्पण करना 'पितृयज्ञ' है, हवन करना 'देवयज्ञ' है, बलिवैश्वदेव करना 'भूतयज्ञ' है तथा अतिथियों का भोजन आदि से सत्कार है करना 'नृयज्ञ' है। यथाशक्ति इन पञ्चमहायज्ञों को नहीं छोड़ने वाला गृहस्थाश्रम में रहता है हुआ भी द्विज पञ्चसूना (पांच हिंसा-प्रसंग) के दोषों से युक्त नहीं होता है। जो गृहस्थाश्रमी # देवताओं ( तथा भूतों), अतिथियों, माता-पिता आदि वृद्धजनों (तथा सेवकों),पितरों और # स्वयं को अन्नादि से सन्तुष्ट नहीं करता है, वह श्वास लेता हुआ भी नहीं जीता है (मरे हुए के समान है)। [इन पांच सूना-दोषों का निर्देश अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त है। उदाहरणार्थ-विष्णु-स्मृति (गृहस्थाश्रमवर्णन),मत्स्य-पुराण-52/15-16; याज्ञवल्क्य स्मृति- 1/5102, भागवत पुराण-5/26/18, महाभारत- 12/36/34#35, आदि आदि।] 35, आदि आदि।] ... [स्पष्टीकरणः गृह-कार्य व रसोई आदि की व्यवस्था में अनिवार्य रूप से हिंसा हो जाती है। इन हिंसा-युक्त स्थलों को 'सूना' नाम से अभिहित किया गया है। प्रथम 'सूना' वह है जो अचानक जल में प्रवेश, जल में डुबकी लेने, वस्त्र से बिना छाने हुए जल-ग्रहण करने आदि की क्रियाओं के दौरान उत्पन्न होती है। दूसरी 'सूना' वह है जो अन्धकार में इधर-उधर चलने, शीघ्रता से हिलने-डुलने, अनजाने में कीड़ों-मकोड़ों पर चढ जाने आदि से होती है। तीसरी 'सूना' वह है जो पीटने या काटने (कुल्हाड़ी से वृक्ष/काष्ठ आदि के काटने-पीटने), चूर्ण करने, (लकड़ी आदि) चीरने से होती है। चौथी 'सूना' वह है जो अनाज कूटने, रगड़ने या पीसने से उत्पन्न होती है और पांचवी सूना वह है जो (लकड़ी आदि के) घर्षण से, (जल आदि के) गर्म करने से, भूनने, छीलने, या पकाने से होती है। गृहस्थ लोगों को इन पांच प्रकार की हिंसा के पापों से छुटकारा दिलाने के लिए पांच 'यज्ञों विशिष्ट कृत्यों का विधान किया गया है। प्रथम 'यज्ञ' है- (1) ब्रह्मयज्ञ-वेद/ सत्शास्त्र का अध्ययन-अध्यापन व स्वाध्याय। (2) पितृयज्ञ-पितरों के प्रति श्रद्धार्पण (3) देवयज्ञ-अग्नि में आहुति डालना, (4) भूतयज्ञ-जीवों को अन-दान, (5) नयज्ञ / मनुष्ययज्ञ-अतिथि को अन्न-भोजनादि का दान। इनमें अन्तिम दो (भूत-यज्ञ व मनुष्य-यज्ञ) यज्ञों में व्यक्ति ब्रह्माण्ड या आसपास में रह रहे प्राणियों व मनुष्यों के प्रति अपने धार्मिक उत्तरदायित्वों व कर्तव्यों को, त्याग की भावना के माध्यम से, क्रियात्मक रूप देता है और इस प्रकार अनजाने में हुई जीव-हिंसा के पाप से मुक्ति पाने का प्रयास करता है।। 玩玩玩乐乐巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩玩玩玩乐乐场 अहिंसा कोश/243]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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