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{792} औषधं स्नेहमाहारं रोगिणे रोगशान्तये। ददानो रोगरहितः सुखी दीर्घायुरेव च॥
(कू.पु. 2/26/50) रोगी को उसके रोग की शान्ति के लिए औषध व स्निग्ध आहार देने वाला व्यक्ति नीरोग, सुखी व दीर्घायु होता है।
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अन्नं हि जीवितं लोके प्राणाश्चान्ननिबन्धनाः। अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदश्च तथाऽन्नदः॥
(वि.ध.पु. 3/315/4) अन्न इस लोक में 'जीवन' स्वरूप है। अन्न पर प्राण टिके रहते हैं। इसलिए अन्न का दान करने वाला व्यक्ति लोक में 'प्राणदाता' होता है। अन्नदाता सब कुछ देने वाला है (अर्थात् वह सभी प्रकार के दानों के फल को प्राप्त करता है)।
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अहिंसात्मक दान-धर्म और उसके स्थायी प्रतीक
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[अहिंसक दयालु होता है, करुणा की मूर्ति होता है, उसकी प्रवृत्ति उन कार्यों में होनी स्वाभाविक है जिनसे लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। भूख-प्यास व रोग आदि से मरते हुए या संकटग्रस्त प्राणियों को अन्न, जल
व औषधि आदि देकर बचाना, भोजन कराना, तालाब आदि खुदवाना, अस्पताल खुलवाना, आदि आदि कार्य उसकी है उसी प्रवृत्ति के अंग माने जाते हैं। इन लोककल्याणकारी दानों के सन्दर्भ में उपलब्ध कुछ शास्त्रीय वचनों को यहां
प्रस्तुत किया जा रहा है-]
{794} अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत्॥ एकाहं स्थापयेत्तोयं तत्पुण्यमयुतायुतम्। विमाने मोदते स्वर्गे नरकं न स गच्छति॥
__ (अ.पु. 64/42-43) लाखों अश्वमेध यज्ञ करने से जो फल होता है, उससे भी असंख्य गुना अधिक * फल एक बार की जलाशय-प्रतिष्ठा (तालाब, बावड़ी आदि के निर्माण) से होता है। वह
जलदान करने वाला व्यक्ति स्वर्ग में विमान पर आरूढ़ होकर विहार करता है, वह नरक भ में कभी नहीं जाता।
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विदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/222