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मा पृणन्तो दुरितमेन आरन् ।
दानी कभी दुख नहीं पाता, उसे कभी पाप नहीं घेरता ।
अन्न आदि का दानः प्राणदान/प्राण-रक्षा
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प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तुर्दातुर्भवत्युत । सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत ॥ अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति रतिरन्नाद्धि भारत । धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथाऽन्नतः ॥ अन्नं ह्यमृतमित्याह पुराकल्पे प्रजापतिः । अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्त्रे प्रतिष्ठितम् ॥ अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः । बलं बलवतोऽपीह प्रणश्यत्यन्नहानित: ॥ आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा । निवर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते ॥ अन्नतः सर्वमेतद्धि यत् किंचित् स्थाणु जङ्गमम् । त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः ॥
(ऋ. 1/125/7)
( म.भा. 13/63/29-34)
अन्न का दान ही एक ऐसा दान है, जो दाता और भोक्ता, दोनों को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करने वाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान हैं, उन सबकां फल परोक्ष है । अन्न से ही संतान की उत्पत्ति होती है । अन्न से ही रति की सिद्धि होती है । अन्न से ही धर्म और अर्थ की सिद्धि समझो। अन्न से ही रोगों का नाश होता है । पूर्वकल्प में प्रजापति ने अन्न को अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्नरूप ही है, क्योंकि अन्न ही सबका आधार है। अन्न का आहार न मिलने पर शरीर में रहने वाले पाँचों तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्न की कमी हो जाने से बड़े-बड़े बलवानों का बल भी क्षीण हो जाता है। निमन्त्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्न के बिना बंद हो जाते है । अन्न न हो तो वेदों का ज्ञान भी भूल जाता है। यह जो कुछ भी स्थावर-जङ्गमरूप जगत् है, सब का सब अन्न के ही आधार पर टिका हुआ है। अतः
बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि तीनों लोकों में धर्म के लिये अन्न का दान अवश्य करें।
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अहिंसा को 219]