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{573}
वात्सल्यात्सर्वभूतेभ्यो वाच्याःश्रोत्रसुखा गिरः। परितापोपघातश्च पारुष्यं चात्र गर्हितम्॥
___ (म.भा.12/191/14) वाणी ऐसी बोलनी चाहिये, जिसमें सब प्राणियों के प्रति स्नेह भाव हो तथा जो # सुनते समय कानों को सुखद जान पड़े। दूसरों को पीड़ा देना, मारना और कटुवचन सुनाना
ये सब निन्दित कार्य हैं।
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नानिष्टं प्रवदेत् कस्मिन्न च्छिद्रं कस्य लक्षयेत्।
(शु.नी. 3/118) किसी के लिये दुर्वचन न कहे, और न ही किसी के छिद्र को देखे/सूचित करे।
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{575} विवक्षता च सद्वाक्यं धर्मं सूक्ष्ममवेक्षता। सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम्।। कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनाम् । ईदृगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा॥
(म.भा. 12/215/10-11) जो सूक्ष्म धर्म को ध्यान में रखते हुए उत्तम वचन बोलना चाहता हो, उसको ऐसी , वाणी कहनी चाहिये जो सत्य होने के साथ ही हिंसा व परनिन्दा से रहित हो और जिसमें है। # शठता, कठोरता, क्रूरता और चुगली आदि दोषों का सर्वथा अभाव हो, ऐसी वाणी भी बहुत
थोड़ी मात्रा में और सुस्थिर चित्त से ही बोलनी चाहिये।
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{576} अपशब्दाश्च नो वाच्या मित्रभावाच्च केष्वपि। गोप्यं न गोपयेन्मित्रे तद्गोप्यं न प्रकाशयेत्॥
___ (शु.नी. 3/313) किसी व्यक्ति के लिये मित्रभाव से भी अपशब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं है। अ मित्र से गोप्य विषय को न छिपाये, और उसके गोप्य विषय को कहीं प्रकाशित न करे।
第一步明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/162