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________________ 原 {382} परापवादं न ब्रूयात् नाप्रियं च कदाचन । (वि. ध. पु. 2 / 233 /51) दूसरों की निन्दा / अपयश-वर्णन न करें और किसी को अप्रिय भी न बोलें । 出 {383} जिह्वया अग्रे मधु मे, जिह्वामूले मधूलकम् । ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥ " (37.1/34/2) मेरी जिह्वा के अग्रभाग में मधुरता रहे, मूल में भी मधुरता रहे। हे मधुरता ! तू मेरे कर्म और चित्त में भी सदा बनी रहो । {384} यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ॥ (य. 26/2) मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, अपने, पराये - सभी जनों के लिए कल्याण करने वाली वाणी बोलता हूं। {385} यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते । स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति ॥ (म.भा.12/84/6) जो सभी को देखकर (उनके बोलने से) पहले ही बात करता है और सब से मुसकराकर ही बोलता है, उस पर सभी लोग प्रसन्न रहते हैं। {386} भद्रं भद्रमिति ब्रूयान्नानिष्टं कीर्तयेत्कचित् । ( अ.पु. 155/20; वि.ध. पु. 2/89/29) सदैव कल्याणकारी बातों को ही करना चाहिये और कहीं पर अनिष्ट भाषण नहीं करना चाहिए। 出 अहिंसा कोश / 109]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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