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________________ AEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng {3403 अतीवगुणसम्पन्नो न जातु विनयान्वितः। सुसूक्ष्ममपि भूतानामुपमर्दमुपेक्षते॥ (म.भा. 5/39/10) जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते ॐ देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। 與妮妮妮妮妮妮妮坎坎坎贝听听听听听听听贝听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听, {341} दुःखितानां हि भूतानां दुःखोद्धर्ता नरो हि यः। स एव सुकृती लोके ज्ञेयो नारायणांशजः॥ कपोतार्थं स्वमांसानि, कारुण्येन पुरा शिविः। दत्त्वा दयानिधिः स्वर्गे राजते कीर्तिवारिधिः॥ दधीचिरपि राजर्षिः, दत्वाऽस्थिचयमात्मनः। त्रैलोक्यकौमुदीं कीर्तिं लब्धवान् स्वर्गमक्षयम्॥ सहस्रजिच्च राजर्षिः प्राणानिष्टान् महायशाः। ब्राह्मणार्थे परित्यज्य गतो लोकाननुत्तमान्॥ न स्वर्गे नापवर्गेऽपि तत्सुखं लभते नरः। यदार्तजन्तुनिर्वाणदानोत्थमिति नो मतिः॥ (प.पु. 5/102/17,20-23) जो लोक में दुःख-पीड़ित प्राणियों के दुःख को दूर करता है, वह पुण्यवान है और नारायण के (ईश्वरीय) अंश से उत्पन्न है। प्राचीन काल में, राजा शिवि ने एक कबूतर की जान बचाने के लिए करुणा से अपने मांस को भी दे दिया था, वह दयासागर राजा इस दान से स्वर्ग में विराजित हुआ और कीर्ति भी प्राप्त की। इसी तरह, राजर्षि दधीचि ने (देवताओं * को उनके अस्त्र-निर्माण में सहायता करने के लिए) अपनी हड्डियों तक को भी दान कर दिया था, वे भी अक्षय स्वर्ग में गये और उन्होंने त्रिलोक-व्यापिनी कीर्ति प्राप्त की। इसी 5 तरह, राजर्षि सहस्रजित् ने ब्राह्मण के लिए अपने प्राण दिए, वे भी श्रेष्ठतम लोक में गए। ॥ * वस्तुतः दुःखी-पीड़ित प्राणियों के दुःख को शान्त करने से जो सुख मिलता है, वह सुख न फू तो स्वर्ग में और न मुक्ति में ही मिलता है। वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/100
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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