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{256} न जीयते चानुजिगीषतेऽन्यान् न वैरकृच्चाप्रतिघातकश्च। निन्दाप्रशंसासु समस्वभावो न शोचते हृष्यति नैव चायम्॥
(म.भा. 5/36/15, विदुरनीति 4/15) जो न तो स्वयं किसी से पराजित होता है और न दूसरों को जीतने की इच्छा करता है, न किसी के साथ वैर करता और न दूसरों को चोट पहुंचाना चाहता है, जो निन्दा और प्रशंसा में समानभाव रखता है, वही हर्ष-शोक से परे हो पाता है।
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{257} भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः। सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः॥
(म.भा. 5/36/16, विदुरनीति 4/16) जो सब का (अस्तित्व रूप) कल्याण चाहता है, किसी के अस्तित्व को समाप्त है * करने सम्बन्धी अकल्याण की बात मन में भी नहीं लाता और जो सत्यवादी, मृदुस्वभाव
युक्त व जितेन्द्रिय है, वही उत्तम पुरुष माना गया है।
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{258} समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्॥
(गीता-13/28) जो पुरुष परमेश्वर को सबमें समभाव से स्थित देखता है, वह स्वयं अपनी हिंसा ॥ नहीं करता (स्वयं के शान्त स्वभाव को नष्ट नहीं करता), इससे वह परम गति को प्राप्त क होता है।
{2597 अमित्राश्च न सन्त्येषां ये चामित्रा न कस्यचित्॥ य एवं कुर्वते माः सुखं जीवन्ति सर्वदा॥
____ (म.भा.12/229/17) मनीषी पुरुषों के न कोई शत्रु होते हैं और न वे ही किसी के शत्रु होते हैं। जो मनुष्य ॐ ऐसा करते हैं, वे सदा सुख से जीवन बिताते हैं।
明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明外 विदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/80