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________________ 原 原蛋 {237} न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ (म.भा.13/113/8;5/39/71) जो बात अपने को अच्छी न लगे, वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिये । यही धर्म का संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है, वह कामनामूलक (रागादिजनित ) है। {238} सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ते । तेषां भयोत्पादनजातखेदः कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः ॥ (म.भा. 12/245/25 ) सम्पूर्ण प्राणी सुख में प्रसन्न होते और दुःख से बहुत डरते हैं, अतः प्राणियों पर भय आता देख कर जिसे खेद होता है, उस श्रद्धालु पुरुष को भयदायक कर्म नहीं करना चाहिये । {239} मनसोऽप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वांछसि । भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः ॥ (म.भा.12/309/5) यदि इस लोक और परलोक में अपने मन के अनुकूल वस्तुएं पाने की इच्छा है तो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखते हुए उन सभी आचरणों से अपने को दूर रखो जो अन्य प्राणियों के लिए प्रतिकूल हैं (अर्थात् उन्हें दुःख पहुंचाते हैं) । {240} यथाऽऽत्मनि च पुत्रे च सर्वभूतेषु यस्तथा । हितकामो हरिस्तेन सर्वदा तोष्यते सुखम् ॥ (fa.g. 3/8/17) जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रों के समान ही समस्त प्राणियों का हितचिन्तक होता है, वह सुगमता से ही श्रीहरि को प्रसन्न कर लेता है। $$$$$$ हिंसा कोश / 75]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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