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________________ निरक्त कोश २५१ १३२५. वट्टण (वर्तन) वर्त्यतेऽनेनेति वर्तनम् । (नंटी पृ ५१) जिसके द्वारा वर्तन किया जाता है, वह वर्तन/व्यवहार है। १३२६. वट्टमाण (वर्तमान) वर्तत इति वर्तमानः । (प्रसाटी प २८६) ____ जो हो रहा है, वह वर्तमान है । १३२७. वडार (दे) · वडेण आरितो वडारो। (निचू ४ पृ २४४) __ जिसे विभाग/नामपूर्वक आमंत्रित किया जाता है, प्रेरित किया जाता है, वह वडार है। १३२८. वड्डमाण (वर्धमान) वर्धत इति वर्धमानम् । (नक १ टी पृ २०) जो बढ़ता जाता है, वह वर्धमान है । १३२६. वण (व्रण) व्रणीति व्रणम् । (पंटी प ४११) ___ जो घायल करता है, वह व्रण घाव है। १३३०. वणंतर (वनान्तर) विविधमन्तरं-शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते वनान्तराः। (प्रसाटी प ३३२) _ विविध प्रकार के पर्वत, कन्दरा और वनों के अन्तर/ मध्यभाग जिनके निवास स्थल हैं, वे वनान्तर/व्यन्तर हैं। १३३१. वणचारि (वनचारिन्) विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः। (उशाटी प ७०१) उपवन आदि विविध स्थानों में जो क्रीड़ा करते रहते हैं, वे वनचारी/व्यन्तर देव हैं। १३३२. वणप (वनप) वणं पातीति वणपा। (दश्रुचू प ६०) जो वन की रक्षा करते हैं, वे वनपाल हैं। १. व्रण-अंगक्षतौ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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