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( १९) इस प्रकार प्रस्तुत कोश में १७५४ निरुक्त संगृहीत हैं। इसमें दो *परिशिष्ट हैं । पहले परिशिष्ट में कृदन्तपरक निरुक्त हैं। जैसे—गमनं गतिः । विभयनं विभत्ती। जननं जातिः । ये सभी निरुक्त अनट् प्रत्यय से निष्पन्न हैं। वाक्यरचना संक्षिप्त है। इनकी एकरूपता शृंखलाबद्ध चले, अनुक्रम का सौंदर्य सुरक्षित रह सके, इस दृष्टि से इन्हें मूल निरुक्तों से पृथक् परिशिष्ट-१ में रखा गया है । ऐसे निरुक्तों के हिन्दी अनुवाद की अपेक्षा इसलिए महसूस की गई कि चूर्णिकारों व टीकाकारों के विशिष्ट मन्तव्य को मात्र व्युत्पत्ति से नहीं समझा जा सकता। इसके साक्ष्य में एक निरुक्त का निदर्शन पर्याप्त होगा । यथा-अवधानं अवधिः। जो समाधान देता है, वह अवधिज्ञान है अथवा जो एकाग्रता से उत्पन्न होता है, वह अवधिज्ञान है।
दूसरा परिशिष्ट तीर्थंकरों के नामों के अन्वर्थ निरुक्त का है। इससे चौबीस तीर्थंकरों के नामकरण की विशेष जानकारी प्राप्त होती है।
इस प्रकार प्रस्तुत कोश में १७५४+२०८+२४=१९८६ निरुक्त हैं । इनके पारायण से मूलशब्दगत अर्थगरिमा को पकड़ने में सुविधा होगी और स्वज्ञान वृद्धि के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान वैभव को आत्मसात् करने में पाठक सक्षम होगा।
सबसे पहले हम आचार्यश्री तथा युवाचार्यश्री के प्रति श्रद्धावनत हैं और यह मानती हैं कि इसमें जो कुछ है, वह सारा उन्हीं का अवदान है । हम तो मात्र इसके संचयन की निमित्त बनीं और एक ग्रन्थ रूपायित हो गया। हम बार-बार उनके श्रीचरणों में अपनी कोमल अभिवंदनाएं प्रस्तुत करती हैं और आगे के लिए और अधिक सक्षम होकर कार्य में व्याप्त होने की कामना करती हैं।
हम साध्वीप्रमुखा महाश्रमणी कनकप्रभाजी के हार्दिक वात्सल्य और स्नेह की ऋणी हैं। उनकी सतत प्रेरणा के कारण ही हमने कार्य को करने का संकल्प किया और उनके आशीर्वाद से सफलतापूर्वक उसे संपन्न किया। हम उनके चरणों में श्रद्धावनत हैं।
हम मुनिश्री दुलहराजजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं जिन्होंने सतत हमारा सफल मार्गदर्शन किया। अनेकान्त शोधपीठ के निदेशक डॉ० नथमल टाटिया के सहयोग को भी नहीं भूलाया जा सकता जिन्होंने समयसमय पर अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर और प्राक्कथन लिखकर इस ग्रंथ के
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