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________________ (आठ) महर्षि शत (जीवनकाल २०० ईसा पूर्व) और दत्तिल ने भी उपरोक्त वर्गीकरण को मान्यता प्रदान की। १. तत (कार्डोफोनिक)-तारों से स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्य, जैसे-सितार, वीणा, एकतारा आदि। २. वितत (मैम्ब्रेनोफोनिक)-इस श्रेणी में चमड़े से मढ़े हुए ताल वाद्य आते हैं, जैसे मृदंग, मुरज, हुडुक्का आदि। ३. घन (आटोफोनिक)-इस श्रेणी के वाद्यों से स्वर निकालने के लिए वाद्यों को आपस में टकराया अथवा घर्षण किया जाता है जैसे-ताल, मंजीरा, करताल आदि। ४. सुषिर (एयरोफोनिक)-इस श्रेणी में फूंक अथवा हवा से बजने वाले वाद्य आते हैं, जैसे-बांसुरी काहला, शंख, बीन आदि। इनमें तत और सुषिर मुख्यतः स्वर वाद्य हैं तथा वितत और धन लय वाद्य हैं। नारद ने संगीत मकरन्द में तीन ही वर्गीकरण किये हैं-आनद्ध, तत और घन। बौद्ध साहित्य में पांच वर्गीकरण प्राप्त होते हैं-आतत, वितत, आतत-वितत, घन और सुषिर। ईसा की छठी शताब्दी से पूर्व कोहल ने घन, सुषिर, चर्मबद्ध और तंत्री नामक चार वाद्य भेद किये थे। दूसरी से छठी शताब्दी ई. के मध्य रचित तमिल के संगम ग्रंथों में हमें पांच वर्ग प्राप्त होते हैं, तोल-करुवि (तोल=चमड़ा), नरंपु-करुवि (नरंपु-तांत), तुलई-करुवि (तुलई-छिद्र), कंज-करुवि (कंज-धातु) और मिटात्रु-करुवि (मानवकंठ-ध्वनि)। तमिल वाद्य में करुवि का अर्थ है-वाद्य। ___ आज पूरे विश्व में जैनागमों एवं भारतनाट्यशास्त्र में प्राप्त चार वर्गीकरण ही व्यापक रूप में स्वीकृत हैं। नवीनतम प्रयासों के अनुस आधुनिक इलेक्ट्रानिक वाद्यों को एक ओर छोड़ देने पर भी घन वाद्यों के सोलह, अवनद्ध के ग्यारह, सुषिर के बारह और तत के पन्द्रह भेद उपलब्ध हैं। वाद्य कोश की रूपरेखा प्रस्तुत कोश में तत, वितत, घन और सुषिर वाद्यों की कुल संख्या १०८ है। उनको अकारादि अनुक्रम से संयोजित किया गया हैं। इसमें मूल शब्द प्राकृत भाषा के हैं। वे मोटे, गहरे टाइप में क्रमांक से अनुगत हैं। उनके सामने कोष्ठक में संस्कृत छाया दी गई है। जिस शब्द की छाया नहीं बनती यानी जो देशी शब्द हैं वे मूल शब्द ही कोष्ठक में दिये गये हैं। यदि किसी शब्द का पाठान्तर है तो उसके आगे (पा.) लिखकर पाठान्तर को सूचित किया गया है। कोष्ठक के आगे प्रमाण स्थल का निर्देश है। मूल प्राकत शब्द के नीचे हिन्दी के पर्याय तथा क्वचित अन्यान्य भाषाओं के पर्याय भी दिये हैं। एक ही शब्द के अनेक वाद्य प्राप्त होने पर उन सभी वाद्यों का अलग-अलग वर्णन किया गया है। कोश में उल्लिखित विवरण अनेक ग्रंथों से चयनित होने के कारण इसमें भाषा की एकरूपता नहीं है, फिर भी विषय की पूरी जानकारी हो सके। इसके लिए भाषा का यत्र-तत्र परिमार्जन भी किया गया है। १. (क) भरत नाट्य २८/३-ततं तन्त्रीकृतं शेयमवनद्धं तु पौष्करम् । घन तातस्तु विज्ञेयः सुषिरो वंश उच्यते।। (ख) संगीत चूड़ामणि पृ. ६९-दत्तितेन तु आनद्धं ततं घनं सुषिरं चेति चतुर्विधं वाद्यं कीर्तितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016097
Book TitleJain Agam Vadya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size5 MB
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