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संपादकनुं निवेदन संस्कृत भाषा अने संस्कृति
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भारतने पोतानुं अस्तित्व जाळवी राखवुं हशे अने साची प्रगति साधवी हो, तो संस्कृत भाषानुं आराधन चालु राख्या विना तेने चालवानुं नथी. कारण के तेनी संस्कृति ते भाषाना ताणावाणामां वणायेली छे. अने प्रजाकीय अस्मिता जोखममां नाख्या सिवाय, पहेरवानां कपडांनी जोडनी जेम, संस्कृतिने बदली के फगावी दई शकाती नथी.
तेथी ज ज्यारे ज्यारे भारतना राष्ट्रीय उत्थान माटेनी कोई पण हिलचाल शरू थई छे, त्यारे संस्कृत भाषा अने भारतीय संस्कृति तरफ ते चळवळोना नेताओनी दृष्टि सहेजे गई छे.
भाषा ए आखरे तो अव्यक्त एवा मानव आत्माना आविर्भावनुं एक व्यक्त साधन छे; एटले गीताकारे चेतवणी आपी छे ते अहीं पण लागु पडे छे. 'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते माम् अबुद्धयः ' । व्यक्त एवा भाषा - साधनने आत्मा जेवुं के जेटलुं महत्त्व आपी देवानी भूल न करीए. परंतु आत्मा पण स्थूल शरीर विना आविर्भाव न पामी शके; एटले भाषारूपी स्थूल साधननुं महत्त्व ओछु तो न ज आंकी शकाय अलबत्त, ए भाषानो उत्तरोत्तर विकास - परिवर्तन थई जे नवी नवी लौकिक - प्राकृत भाषाओ रूढ थाय, ते पण भारतीय संस्कृतिना प्रवाहने वहन करती होय; एटले भारतना इतिहासना पुनरुत्थानना केटलाय तबक्काओ पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि अने ते बाद खीलेली अत्यारनी आपणी भाषाओने आधारे पण प्रवर्त्या छे. परंतु ए बधी जुदी जुदी भाषाओनी मणिमाळाना सूत्रात्मा रूपे मुख्यत्वे संस्कृत भाषानो प्राणतंतु रहे छे, ए भूलवुं न जोईए.
प्राकृत भाषाओ प्रथम हती के संस्कृत भाषा, ए एक जुदो ऐतिहासिक सवाल छे. परंतु एक वात नक्की के, भारतवर्षना आत्मारूप मूळ संस्कृति संस्कृत भाषामां जेवी सर्वतोभद्र भावे प्रगट थई, तेवी आ स्थानिक - लौकिक भाषाओमां सर्वतोभावे नथी प्रगट थई. स्थानिक - लौकिक भाषाओमां तेनां अमुक अमुक अंगो ज जाणे एकांगीपणे फूल्यां - फाल्यां. परंतु ए बधां एकांगी अंगोनो समन्वय के शुद्धीकरण मूळ स्रोतनी मदद द्वारा थतां ज रहेवां जोईए. एटले शरूआतमां कयुं के, भारतवर्षने संस्कृत भाषानुं आराधन छोड्ये चालवानुं नथी.
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