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अब इस प्रकरण के सायणादि एतदेशीय तथा एगलिशादि विदेशियों के भाग्य वा अनुवाद देखो । किसी स्थान में भी इस रूपकालंकार को यज्ञ सविता म घटा कर स्पष्ट नहीं किया गया। विना मर्म वा भाव को समझे समझाये अनुवाद मात्र कर देना पर्याप्त नहीं । और जिस अनुवाद से समझ कुछ न आये, उस में अशाद्धया भी तो कम नहीं हो सकती । अतः हमारा यही कहना है कि ब्राह्मणों का अन्वेषण तो अभी आरम्भ भी नहीं हुआ। पाश्चात्य जो यह समझते हैं कि वे इन में अन्वेषण कर चुके हैं, वे भूल से ही ऐसा कहते हैं । यदि सब निष्पक्ष होकर हमारे लेख पर ध्यान देंगे, तो वे स्वयं भी ऐसा मान जायंगे।
___जिस प्रकार पूर्वोक्त शातपाय प्रकरण की चतुर्थ कण्डिका में प्रजापति का अर्थ खोला गया है, वैसे ही अन्यत्र भी भिन्न २ प्रकरणों के अन्त में कुछ सकेत आते हैं । जब तक उन सङ्केतों का पूर्व स्थलों में आकर्षण करके अर्थ न घटाया जावेगा, तब तक अर्थ समझना असम्भव होगा । इस लिये सब पक्षपात छोड़ कर पहले इन ग्रन्थों का अर्थ समझना चाहिये । तदनन्तर कोई सम्मति निर्धारित होसकती है । और जो पश्चिमीय लोग वा सायणानुयायी अभिमान वा भूल से समझ बैठे हैं, कि वे अर्थ जान चुके हैं, उन्हें यह हठ छोड़ना ही पड़ेगा। २-ब्राह्मणों का प्रधान विषय यज्ञ के स्वरूप की कल्पना
करना है। २-आर्य लोग यज्ञ को sacrifice नहीं समझते ।
यह तो इस शब्द का पौराणिक काल का अत्यन्त संकुचित और भ्रान्तिप्रद अर्थ है । इसे ही पाश्चात्यों ने स्वीकार किया है । अतः इन शब्दों के एसे पूर्वकल्पित (preconceived) अर्थों को लेकर जब व ब्राह्मणा का पाठ करते हैं, तो उन्हें ब्राह्मण समझ ही नहीं आ सकते । किसी ग्रन्थ का क्षुद्र शब्दार्थ वे भले ही करलें, पर समझना उन से बहुत दूर है । देखो आङ्गलभाषा में एक प्रासद्ध वाक्य है
स (प्रजापतिः संवत्सरः वायुः) आदित्येन दिवं मिथुन समभवत् । ६।१।२।४॥
ग्रिफिय का हठ है कि वह अपने ऋग्वेदानुवाद में इस कथा सम्बन्धी मन्त्रों का व्याख्यान उचित स्थल में न करक, उन्हें अश्लल समझ परिशिष्ट में लैटिन भाषा में उनका अनुवाद करता है | ग्रिफिथ का कथन निरर्थक ही है कि
The whole passage is difficult and obscure. *देखा गुरुदत्त लेखावली पृ० ८८१ ( Works of Pt. Guru Datta.)
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