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ही तैत्तिरीय ब्राह्मण २।२।९।५-८॥ में कहा है
सः (प्रजापतिः) मुखाद्देवानसृजत । ___अर्थात् उस प्रजापति = परमात्मा ने मुख = मुख्य आमेय परमाणुओं से देवों को उत्पन किया । और आधिदैविक प्रकरण में इसी का यह अर्थ हैं कि सूर्य के ही प्रभाव से सब आग्नेय परमाणु एकत्र हुए और भिन्न २ देवों के रूप में प्रकट हुए ।
निरुक्त ३८॥ में भी किसी प्राचीन ब्राह्मण का पाठ इसी अभिप्राय से धरा
गया है
'सोर्देवानसृजत तत् सुराणां सुरत्वम् । असोरसुरानसृजत तदसुराणामसुरत्वम्' इति विज्ञायते ।
__ अर्थात् प्रकाशमय परमाणुओं से देवों को रचा और अन्धकार युक्त परमाणुओं से असुरों को रचा।
काठक संहिता ९।११॥ में भी ऐसा ही कहा है
अह्ना देवानसृजत ते शुक्लं वर्णमपुष्यन् । रान्या सुराँस्ते कृष्णा अभवन् ।
* शतपथ ११।१।६।७॥ में कहा है। सः (प्रजापतिः) आस्येनैव देवानसृजत । यहां आस्येन तृतीयान्त प्रयोग है । एगलिङ्ग इसका अनुवाद करता है
By ( the breath of ) his mouth he created the gods.
यह अनुवाद ठीक नहीं। प्राणों से देवों की उत्पत्ति हमारे देखने में कहीं नहीं आई । प्रत्युत दो चार स्थलों में प्राण स्वयं देव तो कहे गये हैं
तस्मात् प्राणा देवाः । श० ७॥५॥१॥२२॥
अन्यत्र प्राण असुर ही हैं। प्राणों की उत्पत्ति प्रायः तम के परमाणुओं से कही गई है। यहां हेत्वर्थ में तृतीया का यही अभिप्राय है कि प्रकरणाभिप्रेत देवों की उत्पत्ति में सूक्ष्म अनि के परमाणु ही मुख्य कारण हैं। तृतीया के अर्थ के साथ २ पश्चमी का अर्थ भी ले लेना चाहिये, क्योंकि
स (प्रजापतिः) आनिमेव मुखाजनयां चक्रे । श० शशा॥ ऐसे सब स्थलों में पञ्चमी से भी अभिप्राय स्पष्ट होता है।
अर्थ--उस प्रजापति = परमात्मा ने इस भौतिक अमि को मुख्य प्रकाशमय परमाणुओं से बनाया ।
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