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सं सुद्ध-सकंदण पाइअसहमहण्णवो
८५५ संसुद्ध वि [संशुद्ध] १ विशुद्ध, निर्मल (सुपा | संहर सक[सं + ह] १ अपहरण करना । सकहा स्त्री [सक्थिन] अस्थि, हाड़ (सम ५७३) । २ न. लगातार उन्नीस दिन का २ विनाश करना। ३ संवरण करना, संके- ६३; सुगरा ६५७ राय ८६) उपवास (संबोध ५८)।
लना, समेटना। ४ ले जाना। संहरइ (पव सकाम देखो स-काम = सकाम । संसूयग वि [संसूचक] सूचना-कर्ता (रंभा) - २६१; हे १, ३०, ४, २५६)। कवकृ.
सकुंत पुंशकुन्त] पक्षी (कुप्र ६८; अणु संसेइम वि [संसेकिम] संसेक से बना हुआ | संहरिजमाण (णाया १, १-पत्र ३७) ।।
१४१) (निचु १५)। २ उबाली हुई भाजी जिस संहर पू[संभार समुदाय, संघात; 'संघामो
सकुण देखो सक% शक् । सकुणेमो (स ठंढे जल से सिची जाय वह पानी (ठा ३, संहरो निअरो' (पाप्र)।३-पत्र १४७; कप्प)। ३ तिल की धोवन
संहरण न [संहरण] संहार (श्रु ८७)। (प्राचा २,१,७,८ । ४ पिष्टोदक, प्राटा की
सकेय देखो स-केय = सकेत । संहार देखो संभार = सं + भारय। कृ. धोवन (दस ५, १.७५)।
सक्क प्रकाशक ] सकना, समर्थ होना ।
संहारणिज (णाया १, १२-पत्र १७६) संसेइम वि [संस्वेदिम] १ पसीने से उत्पन्न
सक्कइ. सक्कए (हे ४, २३०; प्राप्र; महा)। होनेवाला (पएह १, ४–पत्र ८५)।
संहार देखो संघार ( हे १, २६४; षड् )। भवि. सक्खं, सक्खामो, सकिस्सामो (पाचा संसेय प्रक[सं+ स्विद् ] बरसना; जावं संहारण न [संधारण] धारण, बनाये रखना, हि ५३१) । कृ. सक्क, सक्कणिज, सकिअ
च णं बहवे उराला बलाहया संसेयंति (भग)M टिकानाः 'कायसंहारणट्ठाए' (याचा)। (सक्षि ६; सुर १, १३०; ४, २२७; स संसेय पुं[संस्वेद] पसीना । य वि [ज] संहाव देखो संभाव = सं+भावय । वकृ.
११४. संबोध ४०सुर १०, ८१)। पसीने से उत्पन्न (सूत्र १, ७, १; प्राचा) संडावअंत (शौ) (पि २७५) ।
सक्क सक [सृप ] जाना, गति करना । संसेय पुं[संसेक] सिंचन (ठा ३, ३)। संहिदि देखो संहदि (प्राकृ १२)
सकइ (प्राकृ ६५; धात्वा १५५) । संसेविय वि [संसेवित] प्रासेवित (सुपा
संहिच्च प्रसिंहत्य साथ में मिलकर, एकत्रित सक्क सक [वष्क] गति करना, जाना । २२७)
होकर (णाया १, ३ टी--पत्र ६३)। सकइ (पि ३०२) संसेस पुं [संश्लेष] सम्बन्ध, संयोग (प्राचा
संहिय देखो संधिअ = संहित (कप्पः नाट- सक्क न [शक्क] छाल (दे ३, ३४)। २, १३, १)।
महावी २६) संसेसिय वि [संश्लेषिक] संश्लेषवाला
सक्क वि [शक्त] समर्थ, शक्ति-युक्त; 'को सको संहिया स्त्री [संहिता] १ चिकित्सा आदि वेयणाविगमे (विवे १०२ हे २, २)। (प्राचा २, १३, १)।
शास्त्र; 'चिगिच्छासंहियाओं' (स १७)। २ संसोधण न [संशोधन] शुद्धि-करण (पिंड
सक्क देखो सक्क = शक् ।। अस्खलित रूप से सूत्र का उच्चारण; ४५६) । देखो संसोहण । 'अक्खलियसुत्तच्चारणरूवा इह संहिया
सक्क [शक] १ सौधर्म नामक प्रथम संसोधित वि [संशोधित अच्छी तरह शुद्ध
देवलोक का इन्द्र (ठा २, ३-पत्र ८५; मुणेयव्वा' (चेइय २७२) किया हुआ (सूत्र १, १४, १८)
उवाः सुपा २६९)। २ कोई भी इन्द्र, देवसंहुदि स्त्री [संभृति] अच्छी तरह पोषण
पति (कुमा)। ३ एक विद्याधरराजा (पउम संसोय सक[सं+ शोचय ] शोक करना। (संक्षि ४)।
१२, ८२)। ४ छन्द-विशेष (पिंग)। गुरु कृ. संसोयणिज (सुर १४, १८१) । सक देखो सग = शक (पएह १, १-पत्र
पुं[गुरु] बृहस्पति (सिरि ४४), "प्पभ संसोहण न [संशोधन] विरेचन, जुलाब
पुं[प्रभ] शक्र का एक उत्पात-पर्वत (ठा (प्राचा १, ६, ४, २)। देखो संसोधण सकण्ण देखो सकन्न (राज) ।
१०-पत्र ४८२)°सार न [सार] एक संसोहा स्त्री [संशोभा] शोभा, श्री (सुपा सकथ न [सकथ] तापसों का एक उपकरण
विद्याधर-नगर (इक) -1 वदार (शौ) न (निर ३, १)
[वतार] तीर्थ-विशेष (अभि १८३)। संसोहि वि [संशोभिन्] शोभनेवाला (सुपा | सकधा देखो सकहा: 'चेइयखंभेसु जिसकधा
वयार न [वतार] चैत्य-विशेष (स संणिक्खित्ता चिट्ठति' (सुज्ज १८) ४७७ द्र ६१)। संसोहिय देखो संसोधित (राज)। सकयं प्र[सकृत् ] एक बारः “किं सक सक्क [शाक्य] १ बुद्ध देव (पान) । २ संह देखो संघ (नाट-विक्र २५)।- (? क)यं वोलोणं (सुर १६, ४५) । वि. बौद्ध, बुद्ध का भक्त (विसे २४१६ संहडण देखो संघयण (चंड)। सकन्न वि [सकर्ण] विद्वान्, जानकार (सुर
श्रावक ८८ पव ६४पिंड ४४५)।संहदि स्त्री [संहति संहार (संक्षि )।- ८, १४६, १२, ५४)।
सक्क (अप) देखो सग =स्वक (भवि) संहय वि [संहत] मिला हुमा (पएह १, सकल देखो सयल = सकल (पएह १, ४- सकंदण पु[संक्रन्दन] इन्द्र (सुर १, ६ ४-पत्र ७८)। पत्र ७८)
टि, ४,१६०)।
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