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संणडिअ-संतप्प पाइअसहमहण्णवो
८३९ संणडिअ वि [संनटित] व्याकुल किया | ४ सम्यग् दर्शनवाला, सम्यक्त्वी, जैन (भग)। | संणिहाइ वि [संनिधायिन्] समीप-स्थायो हुआ, विडम्बित (वज्जा ७०)।
५ न. गोत्र-विशेष, जो वासिष्ठ गोत्र की (माल ५२) संणद्ध वि [संनद्ध] संनाह-युक्त, कवचित शाखा है। ६ पुंस्त्री. उस गोत्र में उत्पन्न संणिहाण देखो संनिहाण (राज)। (विपा १,२-पत्र २३; गउड) (ठा ७-पत्र ३९०)
संणिहि देखो संनिहि (प्राचा २, १, संणय देखो संनय (राज) ।
संणिक्खित्त देखो संनिक्खित्त (राज)। २, ४) IV संणवणा स्त्री [संज्ञापना] संज्ञप्ति, विज्ञापन |
संणिहिअ वि [संनिहित] सहायता के लिए (उवा)। पत्र ३२)
समीप-स्थित, निकट-वर्ती (महा)। देखो संणा स्त्री [संज्ञा] १ आहार आदि का संणिगास देखो संनिगास = संनिकर्ष (राज)M
संनिहि। अभिलाष (सम & भग; परण १, ३- संणि वय देखो संनिचय (राज)।
संणेझ देखो संनेझ (गउड)। पत्र ५५; प्रासू १७६)। २ मति, बुद्धि |
संत देखो स = सत् (उवाः कप्पः महा)। संणिचिय देखो संनिचिय (प्राचा २, १, (भग)। ३ संकेत, इशारा (से ११, १३४
संत वि शान्त] १ शम-युक्त, क्रोध-रहित २, ४)। टी)। ४ आख्या, नाम । ५ सूर्य की पत्नी। ६
(कप्पः प्राचा १, ८, ५, ४)। २ पुं. रससंणिज्म देखो संनिज्म (गउड)। गायत्री (हे २, ४२)। ७ विष्ठा, पुरीष (उप संणिणाय देखो संनिनाय (राज)।
विशेष; "विणयंता चेव गुरणा संतंतरसा किया १४२ टी)। ८ सम्यग् दर्शन (भग)। ६
उ भावंता' (सिरि ८८२) संणिधाइ देखो संणिहाइ (नाट-मालतो सम्यग् ज्ञान । (राय १३३)इअ वि
संत वि [श्रान्त] थका हुआ (णाया १, ४ २६) IN [कृत] टट्टी फिरा हुआ, फरागत गया हुमा
उवा १०१ ११२; विपा १,१; कप्प; (दस १. १ टी) । भूमि स्त्री [भूमि
संणिधाण देखो संनिहाण (नाट-उत्तर पुरीषोत्सर्जन की जगह (उप १४२ टी; दस संणिपडिअ वि [संनिपतित गिरा हुआ
संतइ स्त्रो [संतति] १ संतान, अपत्य, १, १ टी)।
लड़कावाला; 'दुटुसीला खु इत्थिया विणासेइ संणामिय वि [संनामित] अवनत किया (विपा १, ६-पत्र ६८)।
संतई' ( स ५०५; सुपा १०४)। २ हुप्रा (पंचा १६, ३६)। संणिभ देखो संनिभ (राज)।
अविच्छिन्न धारा, प्रवाह (उत्त ३६, ६ उप संणाय वि [संज्ञात] १ ज्ञात, नात का संणिय वि [संज्ञित] जिसको इशारा किया
पृ१८१) गया हो वह (सुपा ८८) प्रादमी (पंच १०, ३६)। २ स्वजन, सगा
संतच्छण न [संतक्षण] छिलना (सूम १, संणियास पुं [संनिकाश] समान, सदृश | (उप ६५३) । देखो संनाय ।
५, १,१४) (पउम २०, १८८)। देखो संनियास । संणास पु [संन्यास] संसार-त्याग, चतुर्थ |
संतच्छिअ वि [संतक्षित] छिला हुआ संणिरुद्ध वि [संनिरुद्ध ] रुका हुआ, प्राश्रम (नाट-चैत १०)
(पराह १, १-पत्र १८)। नियन्त्रित (आचा २, १, ४, ४)। संणासि वि [संन्यासिन्] संसार-त्यागी, संणिरोह
संत? वि [संत्रस्त] डरा हुमा, भय-भीत
संनिरोध] अटकाव, रुकावट चतुर्थ-पाश्रमी, यति, व्रतो (नाट--चैत ८८)M (से ५, ६४)
(सुर ६, २०५) संणाह सक [सं+ नाहय ] लड़ाई के संणिवय अक [संनि + पत्] पड़ना,
संतति देखो संतइ (स ६८४) ।। लिए तैयार करना, युद्ध-सज्ज करना ।
संतत्त वि[संतत] १ निरन्तर, अविच्छिन्न । गिरना। वकृ. संणिवयमाण (पाचा २, संणाहेहि (प्रौप ४०)।
२ विस्तीर्ण १, ३, १०)।
'अच्छिनिमीलियमित्तं नत्थि सुहं संणाह [संनाह] १ युद्ध की तैयारी (से | संणिवाय पुं[संनिपात ] सम्बन्ध (पंचा ११, १३४): २ कवच, बखतर (नाट--
दुक्खमेव संतत्तं । वेणी ६२) पट्ट [पट्ट] शरीर पर संणिविटु देखो संनिविट्ठ (णाया १, १
नरए नेरइयारणं महोनिसि बांधने का वस्त्र-विशेष (बृह ३)।
पच्चमारणाणं।' टी-पत्र २)।
(सुर १४, ४६) संणाहिय वि [सांनाहिका युद्ध की तैयारी संणिवेस देखो संनिवेस (प्राचा १, ८, ६, |
५. संतत्त वि [संतप्त] संताप-युक्त (सुर १४, से सम्बन्ध रखनेवालाः 'संणाहियाए भेरीए ___३; भग; गउड नाट–मालती ५६)
५६ गा १३६, सुपा १६; महा)। सई सोचा' (णाया १, १६-पत्र २१७) संणिसिज्जा ।
देखो संनिसिज्जा (राज)। संतत्थ देखो संत? (उवः श्रा १८)। संणि वि [संज्ञिन] १ संज्ञावाला, संज्ञा- संणिसेन्जा)
| संतप्प अक[सं+ तप्] १ तपना, गरम युक्त। २ मनवाला प्राणो (सम २, भगः संणिह देखो संनिह (गा २५८ नाट-मृच्छ | होना। २ पीड़ित होना। संतप्पइ (हे ४, प्रौप)। ३ श्रावक, जैन गृहस्थ (मोघ ८)।। ६१) ।।
१४०; स २०)। भवि. संतप्पिस्सइ (स
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