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संखुड्डण - संगणि
पाइअसद्दमद्दण्णवो
संखुण न [रमण] क्रीड़ा, सुरत- फोड़ा संग न [शा] शृङ्ग-संबन्धी (जिसे २८६ ) IM संग न [शार्ङ्ग] शृङ्ग-संबन्धी (बिसे २८९ ) । (कुमा) । संग पुंन [सङ्ग ] १ संपर्क, संबन्ध ( श्राचा महागुमा २ सोहबत 'राह होणायारण इजरासंग सहारा परिसंवी ३६ १०) ३ा विषयादि-राग ( गउड प्राचा उव) । ४ कर्म, कर्म-बन्ध ( आचा) । ५ बन्धनः 'भोगा इमे सगकरा हवंति' ( उत्त १३, २७) ।
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संग श्री [संगति] १ श्रीयि पतिता (सुवा ११०)। २ मे (भवि) निर्यात (सूत्र १, १, २, ३) ।
। ३
देखो संखिज्जइ ( प्र ६१ संगइअ वि [साङ्गतिक ] १ नियति-कृत, नियति-संबन्धी (सूत्र १, १, २, ३) । २ परिचित 'सुही ति वा सहाए ति वा संग ( ? गइ ) ए ति वा' (ठा ४, ३-पत्र २४३३ राज ) 1
संखुत (अप) नीचे देखो (
संबुद्ध वि[संक्षुब्ध ] क्षोभ प्राप्त (स ५६८; ६७४ सम्मत १५६ सुपा ५१७; कुप्र १७४ ) 1
वि [संक्षुब्ध, संक्षुभित ]
ऊपर देखो (सम १२५. पत्र २७२: पउम ३३, १०६ पि ३१९ ) । -
संखेज्ज देखो संखा = सं + ख्या ।
संबुभि संयुहि
संसेज
संखेजइम } विसे ३०)।
संखेत्त देखो संखित्त (ठा ४ २ - पत्र २२१ व १२४) ।
संखेव [संक्षेप] १ अल्प, कम, थोड़ा (जी 1 २५; ५१) । २ पिंड, संघात, संहति (श्रोधभा १) । ३ स्थान 'तेरससु जीवसंखेबएसु' (कम्म ६, ३५ ) । ४ सामायिक, सम-भाव से अवस्थान (विसे २७९६ ) ।
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संखेवण न [संक्षेपण] अल्प करना, न्यून करना (नव २८ ) । संविवि [संक्षेपिक] संक्षेप-युक्त। 'दसा स्त्री.ब. [°दशा] जैन ग्रन्थ-विशेष (ठा १० - पत्र ५= ५) ।
संखोभ सक [ सं + क्षोभय ] क्षुब्ध } करना। संखोहइ (भवि)। कवकृ. खोह संखोभिज्जमाण (गाया १, ६-पत्र १५६) ।
खोह [संक्षोभ ] १ भय आदि से उत्पन्न चित्त की व्यग्रता, क्षोभ ( उव; सुर २, २२ उप १३० गु ३; त्रि ९४; गउड ) । २
ग
संखोहिअ वि [संक्षोभित ] क्षुब्ध किया हुआ, क्षोभ-युक्त किया हुआ (से १, ४६३ अभि ६० ) IV
संग न [शृङ्ग] १ सींग, निवारण (धर्म ६३० ६४।२२ पर्यंत के ऊपर का भाग, शिखर ४ प्रधानता, मुख्यता । ५ वाद्य विशेष ६ काम का उद्र ेक (हे १, १३० ) । देखो सिंग = शृङ्ग ।
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सगंथ पुं [संग्रन्थ] १ स्वजन का स्वजन, सगे का सगा (चाचा) । २ संबन्धी, श्वशुरकुल से जिसका संबन्ध हो वह (परह २, ४ --पत्र १३२ ) । - | संगच्छ सक [ सं + गम् ] १ स्त्रीकार करना। २ प्रक, संगत होना, मेल रखना । संगच्छइ (चेइय ७७९; षड् ), संगच्छह (स १६) । कृ. संगमणीअ (नाट - - विक्र १०० ) । ~ संगच्छ्रण न [ संगमन] स्वीकार, अंगीकार ( उप ६३० ) 1
संगम पुं [संगम ] १ मेल, मिलाप ( पाश्च महा ) । २ प्राप्तिः सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिग
धम्म (महा) । ३ नदी -मीलक, नदियों का आपस में मिलान ( खाया १, १ --पत्र ३३) । ४ एक देव का नाम (महा) | ५ स्त्री-पुरुष का संभोग (हे १, १७०)। ६ एक जैन मुनि का नाम ( उव) । संगमय पुं [संगमक] भगवान् महावीर को उप करनेवाला एक देव (२) । संगमी स्त्री [संगमी ] एक दूती का नाम (महा) 1
संगय वि [दे] चिकना (८७) । मरण, संग न [संगत] मिश्रा, मैत्री (सुर, १ २०१) । २ संग, सोहबत ( उवः कुप्र १३४ ) । ३. एक जैन मुनि का नाम ( १२ ) । ४ त्रि. युक्त, उचित ( विपा १, २ -पत्र
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२२ ) । ५ मिलित, मिला हुआ (प्रामु ३१३ पंचा १, १३ महा) | V
संगययन [ संगतक] छन्द-विशेष (जि
७) । -
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संगर देखो शंकर शंकर (२८८४) संगर [संगर ] लड़ाई राम्र का १६३; कुप ७३ धर्मवि ६३ हे ४, ३४२) -
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संगरिंगा श्री [हे] फली विशेष सिक तरकारी होती है, सांगरी (पव ४- गाथा २२)
संगल सक [ सं + घटय] मिलना, संघटित करना। संगलइ (हे ४, ११३) | संकु. संगलिश (कुमा) -
संगल क [ सं + गल ] गल जाना, होन होना । वकृ. संगलंत (से १०, ३४ ) 1 संगलिया स्त्री [दे] फली, फलिया, छीमी (भग १५ - पत्र ६८०; अनु ४) । संग्रह क [ सं + ग्रह ] १ संचय करना । २ स्वीकार करना । ३ श्राश्रय देना । सगहर (भवि ) । भवि, संगहिस्सं (मोह ε३) । संगह पुं [दे] घर के ऊपर का तिरखा काठ (दे ८, ४) ।
संगह पुं [संग्रह] १ संचय, इकट्ठा करना, बटोरना (ठा ७–पत्र ३८५३ व ३ ) । २ संक्षेप, समास ( पान ठा ३, १ टी -पत्र ११४) । ३ उपधि, वस्त्र आदि का परिग्रह घोष ६६६) । ४ नय- विशेष वस्तुन्दरीक्षा का एक दृष्टिकोण, सामान्य रूप से वस्तु को देखना (ठा ७-पत्र ३६०; विसे २२०३ ) । ५ स्वीकार, ग्रहण (ठा - पत्र ४२२ ) । ६ कष्ट आदि में सहायता करना (ठा १०पत्र ४९६) । ७ वि. संग्रह करनेवाला (वव ३) । ८ न. नक्षत्र विशेष, दुष्ट ग्रह से आक्रान्त नक्षत्र ( वव १ ) 1
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संग्रहण [संग्रहण] संग्रह (लिये २२०३३ संबोध १७; महा) गादा को ["गाधा] संग्रह -गाथा (कप्प ११८ ) | देखो संगिण्ण । संगहणि स्त्री [संग्रहणि] संग्रह - ग्रन्थ, संक्षिप्त रूप से पदार्थप्रतिपादक ग्रंथ सार-संग्राहक ग्रन्थ ( संग १: धर्मसं ३)
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