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अग्घाइर— अञ्चत्थ
अघार वि [आघ्रातृ] सूंघनेवाला । स्त्री. री (गा ८८६) ।
अग्घाड सक [ पूर् ] पूर्ति करना, पूरा करना । अघाडइ (हे ४, १६९ ) । अग्घाड ) पुं [दे] वृक्ष-विशेष, अपामागं, अग्धाडग ) चिचड़ा, लटजीरा (दे १,८ पररण १) ।
अघाण व [] तृप्त, संतुष्ट (दे १, १८) । अग्घा [आघात ] सूंघा हुआ ( पात्र ) । अग्घायमाण देखो अग्ध = अधें । अग्घायमाण देखो अग्घा । अग्घियवि [राजित ] विराजित, शोभित (कुमा) :
afa [ अर्धित] १ बहुमूल्य, कीमती 'अग्धियं नाम बहुमोल्लं' (निचू २) । २ पूजित (दे १,१०७ से २०२ ) । अग्घोदय न [अर्धोदक] पूजा का जल (श्रभि
११८) ।
अघन [अ] १ पाप, कुकर्म (कुमा) । २ वि. शोचनीय, शोक का हेतुः 'अघं बम्हरणभावं' (प्रयौ ८० ) ।
अघो देखो अहो (नाट) । अक्खु पुंन [अचक्षुस् ] १ ख के सिवाय art इन्द्रियाँ और मन ( कम्म १,१० ) । २ आँख को छोड़ बाकी इन्द्रिय और मन से होनेवाला सामान्य ज्ञान (दं १९ ) । ३ वि. श्रंवा, नेत्रहीन (कम्म ४)। दंसण न [दर्शन] आँख को छोड़ बाकी इन्द्रियां और मनसे होनेवाला सामान्य ज्ञान (सम १५) । 'दंसणावरण न [°दर्शनावरण] श्रचक्षुर्दर्शन को रोकने(D) पुं [स्पर्श] अंधकार, अंधेरा (गाया १, १४) । अक्स वि [अचाक्षुष ] जो श्राँख से देखा न जा सके ( प ह १, १) । अचक्रस वि [अचक्षुष्य ] जिसको देखने का मन न चाहता हो (बृह ३) । अचर वि [अचर ] पृथिव्यादि स्थिर पदार्थ, स्थावर (दस) ।
अचल वि[ अचल ] १ निश्चल, स्थिर (चा) । २ पुं. यदुवंश के राजा अन्धकवृष्णि के एक पुत्र का नाम ( अंत ३) । एक बलदेव का नाम (पव २०९) । ४ पर्वत, पहाड़ (गउड
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पाइअसद्दमहणवो
१२०) । ५ एक राजा, जिसने रामचन्द्र के छोटे भाई के साथ जैन दीक्षा ली थी (पउम ८५, ४) । पुरन [ पुर] ब्रह्म-द्वीप के पास का एक नगर (कप्प) । “पन [त्मन् ] हस्तप्रहेलिका को ८४ लाख से गुरणने पर जो संख्या लब्ध हो वह, अन्तिम संख्या (इक) । 'भाय [भ्रातृ] भगवान् महावीर का
rai गणधर (कप्प) । अचलपुं [अचल] छठवाँ रुद्र पुरुष (विचार ४७२) ।
अचल न [दे] १ घर । २ घर का पिछला भाग ३ वि. कहा हुआ । ४ निष्ठुर, निर्दय । ५ नीरस, सूखा (दे १, ५३ ) i अचला स्त्री [अचला ] पृथिवी । २ एक इन्द्राणी (गाया २ ) ।
अचिंत वि [अचिन्त ] निश्चिन्त, चिन्तारहित । अचित वि [अचिन्त्य | श्रनिर्वचनीय, जिसकी चिन्ता भी न हो सके वह, श्रद्भुत ( लहु ३ ) । अचितणिज्ज | वि [अचिन्तनीय ] ऊपर अचितणीअ | देखो (अभि २०३; महा) । अचिंतिय वि [अचिन्तित ] आकस्मिक, संभावित (महा) ।
अचित्त वि [अचिन्त] जीव-रहित, अचेतनः 'चित्तमचित्तं वा शेव सयं श्रजिन्नं गिरहेजा' ( दस ४) । अचियंत अचियन्त ) ( सू २, २, परह २, ३) । २ वि [] १ श्रनिष्ट, प्रीतिकर न. अप्रीति, द्वेष (प्रोघ २६१) । अचिरजुवइ देखो अइरजुवइ (दे १, १८ टी) । अचिरा देखो अइरा (१उम ३७, ३७) । अचिराभा स्त्री [अचिराभा] बिजली, विद्युत् ( पउम ४२, ३२) । अचिरेण देखो अइरेण ( प्रारू). । अव [अचेतन] चैतन्यरहित, निर्जीव ( परह १, २ ) ।
अचेल न [ अचेल ] १ वस्त्रों का प्रभाव । २ अल्प-मूल्यक वस्त्र । ३ थोडा वस्त्र (सम ४०) । ४ वि. वस्त्र-रहित, नम । ५ जीणं वस्त्र बाला । ६ अल्प वस्त्र वाला । ७ कुत्सित वस्त्र वाला, मैला, 'तह थोत्र-जुन्न - कुत्थियचेले - हिवि भएरगए अचेलोति' (विसे २६०१ ) । परिसह, परीसह पुं[परिषद, परीषह]
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व के प्रभाव से अथवा जीर्ण, अल्प या कुत्सित वस्त्र होने से उसे प्रदीन भाव से सहन करना (सम ४० भग ८८ ) । अचेल ) वि [ अचेलक १ वस्त्र-रहित, अचेलय । नम । २ फटा-टूटा वस्त्र वाला। ३
मलिन वस्त्र वाला । ४ अल्प वस्त्र वाला । ५ निर्दोष वस्त्र वाला; ६ श्रनियत रूप से वस्त्र का उपभोग करनेवाला (ठा १, ३); 'परिसुद्ध जिरण- कुच्छियथोवानिय
यत्तभोगभोगेहि' । मुमुच्छारहिया, संतेहि श्रचेलया हुति'
[
( विसे २५९९ ) । [ अ ] जना, सत्कार करना । श्रच्चे (प) । श्रच्च (दे २, ३५ टी ) । कवकृ. अञ्चिज्जत ( सुपा ७८ ) । कृ. अच्चणिज्ज ( गाया १, १ ) ।
अच्च पुं [अर्च्य ] १ लव ( काल-मान) का एक भेद (कप्प ) । २ वि. पूज्य, पूजनीय ( हे १, १७७) ।
अच्चंग न [ अत्यङ्ग ] विलासिता के प्रधान श्रंग, भोग के मुख्य साधन; 'अच्चं गाणं च भोगो मा' (पंचा १) । अश्चंत वि [अत्यन्त ] हद से ज्यादा, प्रत्यधिक, बहुत (सुर ३,२२) । थावर वि [स्थावर ] अनादि काल से स्थावर-जाति में रहा हुआ ( श्रवम)। दूसमा स्त्री [' दुष्षमा ] देखो दुस्समदुस्समा (पउम २०, ७२ ) । अयंति वि [आत्यन्तिक ] १ श्रत्यन्त अधिक, श्रतिशयित। २ जिसका नाश कभी न हो वह, शाश्वत ( सू २, ६) । अचगवि [अर्चेक] पूजक (चैत्य १२) । अञ्चल fa [ अत्यर्गल] निरंकुश, अनियंत्रित (मोह ८७ ) ।
[अर्चन] पूजा, सम्मान (सुर ३, १३ सत्त १२ टी ) । अच्चणा स्त्री [अर्चना ] पूजा ( श्रचु ५७) । अचणिया स्त्री [अर्चनिका] अर्चन, पूजा (राय १०८) ।
अश्ञ्चत्त वि [अत्यक्त] नहीं छोड़ा हुआ, अपरित्यक्त (उप पृ १०७) । अच्चत्थ वि [अत्यर्थ] १ श्रतिशयित, बहुत
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