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वीसाम-बुजण
पाइअसहमहण्णवो वीसाम ' [विश्राम] १ विराम, उपरम । २ वीहि । स्त्री [वीथि, का, थी] १ मार्ग, | वुग्गह पुं [व्यु ग्रह] १ कलह, झगड़ा, प्रवृत्त व्यापार का अवसान, चालू क्रिया का
वीहिया रास्ता (प्राचा सूत्र १, २, १, विग्रह, लड़ाई (ठा ५, १-पत्र ३००० वव
वीही २१ प्रयौ १०० गउड ११८८)। अंत (हे १, ४३ से २, ३१, महा)।
८) १; पव २६८)। २ धाड़, डाका (उप पृ
२ श्रेणी, पंक्ति (स १४) । ३ क्षेत्र-भाग वीसामण देखो विस्सामण (कुप्र ३१०)।
२४५) । ३ बहकाव (संबोध ५२)। ४ (ठा -पत्र ४६८) । ४ बाजार (उप २८
मिथ्याभिनिवेश, कदाग्रह (राज)। वीसामणा देखो विस्सामणा (कुप्र ३१०)। महा)।
बुग्गा ति युगादा] कलह-कारक, वीसाय देखो बिसाय = वि + स्वादय । कृ. वुअ वि [दे] १ बुना हुआ। २ बुनवाया ।
_ 'नय वुग्गहिरं कहं कहिजा' (दस १०, १०)।विसायणिज्ज (पण्ण १७-पत्र ५३२)। हुमा; 'जन्न तयट्ठा कीय नेव वुयं जं न वीसार देखो विस्सार = वि + स्मृ । वीसारेइ | गहियमन्नेसि' (पव १२५) । देखो वूय।।
बुग्गहिअ वि [व्युग्रहिक] कलह-संबन्धी (धर्मवि ५३१)
वुअवि [वृत] १ प्रार्थित। २ प्रार्थना (दस १०, १०)।--
दुइय । प्रादि से नियुक्त; 'युनो' (संक्षि ४)। वुग्गाह सक [व्युद् + ग्राहय ] बहकाना, विसारिअ वि [विस्मारित भुलवाया हुमा ३ वेष्टितः 'कूकम्मवुइया' (सुपा ६३)। भ्रान्त-चित्त करना । वुग्गाहेमो (महा)। (कुमा)
वुइय वि [उक्त] कथित (उत्त १८, २६) । वकृ. वुग्गाहेमाण (णाया १, १२-पत्र वीसाल सक [मिश्रय ] मिलाना, मिला- बुंज (?) सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना। १७४० प्रौप)। वट करना । वीसालइ (हे ४, २८)।" वुजइ (धात्वा १५४)।
वुग्गाहणा स्त्री [व्युग्राहणा] बहकाव वीसालिअ वि [मिश्रित] मिलाया हुआ बुंताकी स्त्री [वृन्ताकी] बैंगन का गाछ (दे
(प्रोघभा २५)।(कुमा)।
वुग्गाहिअ वि [व्युग्राहित] बहकाया वीसा (अप) देखो वीसाम (कुमा)।
बुंद देखो वंद = वृन्द (गा ५५६ हे १,१३१)। वृंदारय देखो बंदारय (दे १, १३२कुमाः |
हुआ, भ्रान्तचित्त किया हुआ (कसः चेइय वीसास देखो विस्सास (प्रातः कुमा)।
११७; सिरि १०८१)। षड् )।चीसिया स्त्री [विंशिका] बीस संख्यावाला
बुंदावण देखो विंदावण (हे १,१३१, प्रातः वुश्च देखो वय = वच् । (वव १)।संक्षि ४, कुमा)।
वुच्चमाण वि [उच्यमान] जो कहा जाता हो बुंद्र देखो चंद्र (हे १, ५३; कुमा १, ३८)। वह (सूत्र १, ६, ३१, भग; उप ५३० टी)1. ७३) । वुक्क देखो बुक्क = दे (सण) ।
वुच्चा प्र [उक्त्वा ] कह कर (सूत्र २, २, वीसुंअ[ विष्वक ] १ समन्तात्, सब ओर वुकंत वि [व्युत्क्रान्त] १ प्रतिक्रान्त, व्यतीत,
| ८१, पि ५८७)। से । २ समस्तपन, सामस्त्य (हे १, २४, ४३;
गुजरा हुमा; 'वोलीणं वृक्कतं अइच्छिनं वुच्छ देखो वच्छ % वृक्ष (नाट-मृच्छ १५४)। ५२; षड् ; कुमाः दे ७, ७३ टी) ।
वोलिभं अइकंत' (पान), 'वुकतो बहुकालो वुच्छ देखो वोच्छ (कम्म १, १)। वीसुंभ देखो वीसंभ = वि + श्रम्भ । वीसुं
तुह पयसेवं कुणंतस्स' (सुपा ५६१)। २ बुच्छ देखो वोच्छिंद । भेज्जा (ठा ५, २--पत्र ३०८ कस)। विध्वस्त, विनष्ट (राज)। ३ निष्क्रान्त, बाहर वुच्छिण्ण देखो वुच्छिन्न (राज)। वीसुंभ प्रक [दे] पृथग होना, जुदा होना। निकला हुमा (निचू १६) । देखो वोकंत ।
वुच्छित्ति देखो वोच्छित्ति (विसे २४०५)। वीसुंभेज्जा (ठा ५, २-पत्र ३०८, कस) तिमीाव्यकान्तिा उत्पत्ति (राज)।
वुच्छिन्न वि [व्युच्छिन्न, व्यवच्छिन्न] १ वीसुंभण न [दे] पृथग्भाव, अलग होना (ठा वुक्कम पुं [व्युत्क्रम] १ वृद्धि, बढ़ाव (सूत्र | अपगत, हटा हुआ । २ विनष्ट (उव) । ३ न. ५, २ टी—पत्र ३१०)।
२, ३, १)। २ उत्पत्ति (सूम २, ३, १; | लगातार चौदह दिनों का उपवास (संबोध वीहुंभण न [विश्रम्भण] विश्वास (ठा ५,२ २, ३, १७)। टी—पत्र ३१०)
वुक्कस सक [व्युत् + कृष्] पीछे खींचना, वच्छेअ देखो वोच्छेअ (पव २७३; कम्म वीसुय देखो विस्सुअ (पएह १, ४–पत्र वापस लोटाना। बृक्कसाहि (पाचा २, ३, २, २२; सुपा २५४)। ६८)। १६)।
वुच्छेयण देखो वोच्छेयण (ठा ६-पत्र वीसेढि । देखो विसेढि (भास १०: दि । वुक्कार देखो बुक्कार (सण)।
३५८) । वीसेणि । १८४)।
वुक्कार सक [ दे. बूङ्कारय ] गर्जन करना । वुज प्रक [त्रस ] डरना। वुजइ (प्राप्र)। वीहि पुंन [व्रीहि]धान धान्य-विशेषः 'सालीणि वुक्कारेंति (राय १०१)।
देखो वोज । वा वीहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगणि वा' वुक्कारिय न [दे. बूतारित] गर्जना (स वुजण न [दे] स्थगन, पाच्छादन, ढकना (सूम २, २, ११, कस)।
५४८).
। (धर्मसं १०२१ टीः ११०२)।
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