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पाइअसहमहण्णवो
विरइ-विरह विरइ स्त्री [विरति] १ विराम, निवृत्ति । २ कप्यू; पि ५६०; सण)। वकृ. विरयमाण विरल्लिअ वि [तत विस्तारवाला, विस्तारित सावद्य--पाप कर्म से निवृत्ति, संयम, त्याग (सुर १६, १५)। संकृ. विरइअ (नाट)। (दे ७, ७१; पाप कुमाः णाया १,१७(उवः प्राचा)। ३ छन्दःशास्त्र-प्रसिद्ध विश्राम- हेकृ. विरइउ (सुपा २)। कृ. विरइयव्व पत्र २३२, ठा ४, ४--पत्र २७६); जह स्थान, यति (चेइय ५०७) (पउम ६६, १६)।
उल्ला साडीया पासु सुक्का विरल्लिया संतो' विरइअ वि [विरचित] १ कृत, निर्मित,
विरय वि [विरत] १ निवृत्त, रुका हमा, (विसे ३०३२) बनाया हुअा। २ सजाया हुमा (पान; औप;
विराम-प्राप्त (उवाः गा ५४१; दं ४६) । २ विरल्लिअ देखो विरलिअ (राजः भवि) । कप्पः पउम ११८, १२१, कूमा; महा रंभाः
पात-पार्यो निवृत्तः संयमी, त्यागी मात्रा विरल्लिअविदिजलाद्र', भोंजा हुआ (दे कप्पू)
उव)। ३ न. विरति, विराम । ४ संयम, विरइअ देखो विराइअ (कप्प)।
त्याग (दं ४६; कम्म २, २) विग्य वि विरइयव्व देखो विरय = वि + रचय ।।
विरस अक [वि + रस ] चिल्लाना, क्रन्दन [विरत प्रांशिक संयम रखनेवाला, जैन
करना । वकृ. विरसंत (सण)। विरंचि [विरश्चि] ब्रह्मा, विधाता (कुप्र उपासकः श्रावक (सम २६)। ४०३; त्रि ८७ सम्मत १६२)।विरय पुं[दे] छोटा जल-प्रवाह, छोटी नदी
विरस वि [विरस] रस-रहित, शुष्क (णाया विरच ! प्रक [वि+रञ्ज ] १ रिक्त होना, (दे ७, ३६); 'विरया तणुसरित्रानो'
१,५-पत्र १११, गउड; हे १,७; सण)।
२ विरुद्ध रसवाला (भग विरज | उदासीन होना । २ रँग-रहित होना। | (पान)
७, ६-पत्र विरजइ (उवः उत्त २६, २; महा)। वकृ. विरय पुं[विरजस्] १ महाग्रह, ज्योतिष्क
३०५) । ३ पुं. रामभ्राता भरत के साथ जैन विरज्जत, विरञ्चमाण, विरजमाण (से ४, देव-विशेष (सुज्ज २०)। २ एक देव-विभान
दीक्षा लेनेवाला एक राजा (पउम ८५, ३)
४ न. तप-विशेष, निर्विकृतिक तप (सबोध १४. भविः उत्त २६, २; गा १४६; (देवेन्द्र १४१) । २६६) 10
विरगण स्त्रीन [विरचन] १ कृति, निर्माण । विरत्त वि [विरक्त १ उदासीन, विराग-प्राप्त
२ सजावट (नाट--मालती २८; कप्पू)। स्त्री.]
| विरस न [दे] वर्ष, साल, बारह मास (दे (सम ५७; प्रासू १५५, १६६: महा)। २
णा (सुपा ६५, से १५, ७१); 'पडिट्टए
७, ६२)। विविध रंगवाला (याचा १, २, ३, ५)। विध तसर-विरप्रणा' (कप्पू) ।
विरसमुह पुं [दे] काक, कौमा (दे ७, विरत्ति स्त्री [विरक्ति] वैराग्य, उदासीनता | विरया स्त्री [विरजा] १ गोलोक में स्थित (उप पृ ३२)
राधा की एक सखो। २ उसके शाप से बनी विरसिय वि [विरसित] रस-हीन, रसविरम अक [वि + रन] निवृत्त होना, अट- | हुई एक नदी; 'लंघिअविरमासरियं' (अच्तु
..भिरियारिन (प्रत विरहित (हम्मीर ५१)। कना। विरमइ (गा ७०८), विरमेजा
विरह सक [वि + रह. ] १ परित्याग (प्राचा), विरम, विरमसु (गा ३४५; १४६)। विरल वि [विरल] १ अल्प, थोड़ा; 'परदुक्खे
करना। २ अलग करना। कवकृ. विरहिज्जत प्रयो., हेकृ. विरमावे (गा ३४६) दुक्खिमा विरला' (हे २, ७२, ४, ४१२ (नाट-शकू ८२)। कृ. विरहियव्य (शी) विरम ' [विरम] विराम, निवृत्ति (गउड; उसः प्रागू १८०; गउड)। २ अनिषिद्ध ।
(नाट-शकु ११७)। गा ४५६; ६.६; मुर ७, १६३) । ३ विच्छिन्न (गउडः उव)
विरह पुं[विरह] १ वियोग, विछोह, जुदाई विरमग देखो वेरमग (राजः प्रामा)। विरलि स्त्री [दे वस्त्र-विशेष, डोरिया, डोरो
(गउड हे १, ८४; ११५; प्रासू १५६; कुमा; विरमाण सक [प्रति + पालय् ] पालन वाला कपड़ाः 'विरलिपाई भूरिभेना' (गत |
महा)। २ प्रान्तर, व्यवधान (भग)। पुं. करना, रक्षण करना। विरमारण्इ (धात्वा ८४टी)।
वृक्ष-विशेष: 'फुल्लंति विरहरुक्खा सोझरण १५३)।
विरलिअ वि [विरलित] विरल बना हुआ, पंचमुग्गारं' (संबोध ४७; था ३५), 'धराविरमाल सक [प्रति + ईक्ष ] राह देखना, विरल किया हुअा (गउड)।
विप्रो पचासन्ने विराहो नाम तरू, वाइज्य बाट जोहना, प्रतीक्षा करना। विरमालइ (हे | विरली देखो विराली (राज) ।
वीणं फुल्लावियो सो' (कुप्र १३६), 'फुल्लंति ४, १६३) । संकृ. विरमालिअ (कुमा)। विरल्ल सक [तन्] विस्तारना, फैलाना ।
विरहिणो विरहयव्व लहिऊरण पंचमं केवि' विरमालिअ वि [प्रतीक्षित] जिसकी प्रतीक्षा | विरल्लइ विरल्लेइ, विरल्लंति (हे ४, १३७
(कूप्र २४८) । ४ अभाव । ५ विनाश की गई हो वह (पाप) । षड् ; गउड)
(राज)। ६ हरिवंश में उत्पन्न एक राजा विरय सक [वि+रचय ] १ करना, विरल्ल पुं [तान विस्तार, फैलाव, (वव ४) (पउम २२, ६८)
बनाना। २ सजाना, सजावट करना । विरएइ, विरल्लण न [तनन] विस्तार, फैलाव; 'अट्ठ- विरह वि [विरथ] रथ-रहित (पउम १०, विरग्रंति, विरप्रमामि; विरयइ (प्राकृ ७४ । मयविरल्लणे सया रमई' (उव)।
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