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पाइअसद्दमण्णवो
वित्ती-विदुग्ग वित्ती देखो वित्त = वृत्त । कप्प वि वित्थारइत्तअ (शौ) वि [विस्तारयितु] विदरिसण त्रि विदर्शन] जिसके देखने से
[कल्प सिद्धप्राय, पूर्ण-प्राय (तंदु ७)। फैलानेवाला (अभि २८ पि ६००)। भय उत्पन्न हो वह वस्तु, विरूप प्राकारवाली वित्ती° देखो वित्ति =वृत्ति संखेव पुं वित्थारग वि [विस्तारक ] फैलानेवाला
विभीषिका आदि; 'एस रणं तए विदरिसणे [संक्षेप] बाह्य तप का एक भेद-खाने, (रंभा)।
दिठे' (उवा) । देखो विदं सण ।। पीने और भोगने की चोजों को कम करना वित्धारण न [विस्तारण] फैलाव; 'सीसमइ- विदल न [विदल] वंश, बाँस (सुख १०, (सम ११) संखेवण न [संक्षेपण] वित्थारणमित्तत्थोयं को समुल्लावो' (सम्म १;ठा ४, ४-पत्र २७१) वही अर्थ वित्तीसंखेवणं रसच्चायो' (नव १२२, सिरि १२०७)।
विदल न [द्विदलj १ चना भादि वह शुष्क २८; पडि)
विस्थारिय वि [विस्तारित] फैलाया हुआ | धान्य जिसके दो टुकड़े समान होते हैं, वित्तेस वि [वित्तेश] धनी, श्रीमंत (उव (सणः दे)
'जम्मि हु पोलिज्जते नेहो न ७२८ टी) वित्थिष्ण। वि [विस्तीर्ण] विस्तार-युक्त,
हु होइ बिति तं विदलं । वित्थ पुनचितसुवर्ण, सोना (से १.१) वित्थिन विशाल (नाट-मृच्छ ६४
विदलेवि हु उप्पन्न नेहजुयं वित्थक्क अक [वि + स्था] १ स्थिर होना। पाया भवि)
होइ नो विदलं' (संबोध ४४) । २ विलम्ब करना। ३ विरोध करना । वकृ. वित्थिय देखो वित्थड (स ६९७; गा ४०७
२ वि. जिसके दो टुकड़े किए गए हों वह वित्थकत (से ३, ४, १३,७०, ७४)।
(सूअनि ७१) वित्थिर न [दे] विस्तार, फैलाव (षड् ) वित्थक्क देखो विथक (स ६३४ टि)।
विदलिद (शौ) वि [विदलित खण्डित, वित्थुय देखो वित्थड (स ६१०)
चूर्णित (नाट-वेणी २६)। वित्थड। वि [विस्तृत] १ विस्तार-युक्त, वित्थय विशाल (भगः प्रीपः पामः वसुः
विथक वि [विष्ठित] जो विरोध में खड़ा विदाअ देखो विदाय=विदुत (से १३, २५) भविः गा ४०७) ।२ संबद्ध, घटित से हुया हो, विरोधी बना हुमा (स ४६७ विदारग) विविारा विदारण-कर्ताः
विदारय कम्मरयविदारगाई' (पएह २, वित्थर अक [वि + स्तु] १ फैलना। २
विद देखो विअ = विद् । वकृ. विदंत (उप १-पत्र ६६; राज)। बढ़ना। वित्थरइ (प्राकृ ७६; स २०१७
| २८० टी)। संकृ. विदित्ता, विदित्ताणं विदालण न [विदारण] विविध प्रकार से ६८४; सिरि ६२७, मन २५) । वकृ. (सून १, ६, २८ पि ५८३)।
चीरना, फाड़ना (पएह १, १-पत्र १४) । वित्थरंत (से ३, ३१; स ६८६) । हेकृ. विदंड विदण्ड] कक्षा तक लम्बी लट्ठी विदिअ देखो विइअ (मभि १२३; पउम वित्थरिउ (पि ५०५)।
(पव ८१)
___३६, ६८) वित्थर पुंन [विस्तर] १ विस्तार, प्रपंच | विदंसग देखो विदंसय (पएह १, १ टी- विदिण्ण देखो विइण्ण = वितीर्ण (विपा १. (गउड) । २ शब्द-समूह (गउड ८६) पत्र १५)।
२-पत्र २२)।विदंसण न [विदर्शन] अन्धकार-स्थित वस्तु विदिण्ण वि [विदीर्ण] फाड़ा हुआ, चीरा वित्थर देखो वित्थड; 'तत्थ वित्थरा कज्ज
का प्रकाशन (पएह १, १-पत्र ८) । देखो हुआ (नाट-मृच्छ २५५) । धुरा (से ४, ४६), वित्थरं च तलवट्ट” विदरिसण
विदित्ता (वज्जा १०४)
गोविट-विद ।विदंसय वि [विदंशक] श्येन प्रादि हिक विदित्ताणं । वित्थरण वि [विस्तरण] १ फैलानेवाला। २
पक्षी (उत्त १६, ६५, सुख १६, ६५)। विदिन्न देखो विदिण = वितीणं (निपा १, वृद्धिजरेक (कुमा)। विदड्ढ़। वि [विदग्ध] १ पण्डित, विच
| २ टी--पत्र २२, सुर ५, १८७)। वित्थरिअ देखो वित्थड (सुर ३, ५४, सुपा विदद्ध । क्षण (संक्षि ८) । २ विशेष दग्ध
विदिस (अप) स्त्री [विदिशा] एक नगरी का ३६८ पि ५०५; भविः सण)। (पव १२५)। ३ अजीणं का एक भेद |
नाम (भवि) वित्थार सक [वि+स्तारय ] फैलाना।
(राज)। देखो विद्दड्ढ ।
विदिसा । स्त्री । विदिश] १ विदिशा, वित्थारइ (भवि), वित्थारेदि (शौ) (नाट- विदव्म पुंस्त्री [विदर्भ] १ देश-विशेष, 'इनो
विदिसी) उपदिशा, कोण (प्राचाः पि शकु १०) य विदब्भदेसमंडणं कुंडिणं नयर' (कुप्र ४८; गा
४१३; पण्ण १-२६) । २ विपरीत दिशा, वित्थार पुं[विस्तार] फैलाव, प्रपञ्च (गउड ८९) । २ भगवान् सुपार्श्वनाथ के गणधर
असंयम (प्राचा) हे ४, ३६५; नाट-शकु ६) रुइ वि मुख्य शिष्य का नाम (सम १५२)। ३ पुंनो.
विदु देखो विउ (पंचा १६, ७) । [रुचि सम्यक्त्व-विशेष वाला, सब पदार्थों विदर्भ देश की प्राचीन राजधानी, कुण्डिनपुर, को विस्तार से जानने की चाहवाला सम्य- जो आजकल 'नागपुर' के नाम से प्रसिद्ध है।
विदुगुंछा देखो विउच्छा (राज)। क्वी (पद १४६)। 'दूरे विदन्भा' (कुप्र ७०)।
विदुग्ग न [विदुर्ग] समुदाय (भग १, ८)।
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