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वोरमण' (प्रोभा १९०
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(रंभा २०)।।..
मंजुल घोषवाला,
विओरमण-विकंप पाइअसहमण्णवो
७७१ विओरमण न [व्युपरमण विराधना. विजण देखो वंजण तेत्तीसविजणाई' (चंड)Mविंदावण पुंन [वृन्दावन] मथुरा का एक विनाशः 'छक्कायविप्रोरमणं' (प्रोघभा १९०% विजण देखो विअण = व्यजन; गुजराती में | वन (ती ७)। प्रोध ३२६)
विंदुरिल्ल वि [दे] १ उज्ज्वल, देदीप्यमान । विओल विदे] प्राविग्न, उद्वेग युक्त (दे ७, विभ. पुरविन्ध्य पर्वत विशेष, विन्ध्याचल | २ मंजुल घोषवाला, कल-कंठ ! ३ विद्राण,
(गा ११५ णाया १, १-पत्र ६४)। २ म्लान । ४ विस्तृत; 'घंटाहि बिंदुरिल्लासुरविओवाय पुं[व्यवपात] भ्रंश, नाश व्याध, बहेलिया (हे १, २५; २, २६; प्राप्र)। | तरुणीविमाणाणुसारं लहंती (कप्पू)।। (पाचाः सूत्र १, ३, ३, ४)।
३ एक जैन मुनि (विसे २५१२) । ४ एक विंद्र देखो वंद्र (प्राकृ ३६)। विओसग्ग पुं[व्युत्सर्ग] १ परित्याग । २ श्रेष्ठि-पुत्र (सुपा ५७८)
विद्रावण देखो विंदावण (प्राकृ ३६) ।। तप-विशेष, निरीहपन से शरीर प्रादि का | विंट सक [ वेष्टय ] वेष्टन करना, लपेटना,
विध सक [व्यध ] बींधना, छेदना, बेघना। त्याग (प्रौप)। गुजराती में विटवु"; "विटइ तं उज्जाणं
विधइ, विधेजा (पि ४८६; भग)। वकृ. विओसमण देखो विउसमण (पराह २, २हयगयरहसुहडकोडीहिं' (सुपा ५७३) । प्रयो,
विधंत (सुर २, ६३)। संकृ. विधिअ पत्र ११८, २, ५-पत्र १४६) संकृ. विटाविउं (सुपा १८६)
(नाट-मृच्छ २१३) । हेकृ. विधि (स विओसमिय वि [व्यवशमित] उपशान्त | विंट न [वृन्त] फल-पत्र आदि का बन्धन
६२) । कृ. विधेयव्व (सुपा २६६) किया हुमा (कस ६, १ टि)। (हे १, १३६ प्राकृ ४ रंभा; प्रासू १०२)
विंधण न [व्यधन] छेदन, बेधनाः 'लक्खविओसरणया देखो विउसरणया (प्रौप)। विंटल न दे] १ वशीकरण विद्या, विओसव सक[व्यव + शमय ] उपशान्त
विचरण'-(धर्मवि ५२)। विंटलिअ) 'अन्नाईपि कुंडलवि(?टलवि)करना, ठएडा करना, दबा देना। संकृ.
टलाई करलाघवाई कम्माई' (सिरि ५७)। विधिअ वि [विद्ध] जो बेधा गया हो वह, 'तं पहिगरणं प्र-विओसवेत्ता' (कस)
२ निमित्त प्रादि का प्रयोग (बृह १); विटलि- | छिन्न (सम्मत्त १५८)। विओसविय । देखो विओसमिय; 'अवि
प्राणि पति' (गच्छ ३, १३)। विभय देखो विम्य = विस्मय (भवि) । विओसियोसवियपाहुडे' (कस १, विंटलिआ स्त्री [दे] गठरी, पोटली; गुजराती विंभर देखो विम्हर । विभरइ (पि ३१३)। ३५, ४, ५); 'विप्रोसवियं वा पुणो उदी रि- में "विटलु'; 'ताव कुमरेण खिता तप्पुरमा
विभल वि [विह वल] व्याकुल, घबड़ाया त्तए' (कस ६, १, ४, ५ टि)। वथविटलिया', 'तीए विटलियाए' (सुपा
हुमाः 'विसविभल' (उप ५६५ टी, कुप्र ६०; विओसिजा भव्युत्सृज्य] परित्याग कर २६१)
५९% भविः मोघ ७३)। (प्राचा १, ६, २, १) विटिया स्त्री [दे] १ गठरी, पोटली (सुख २,
विभिअ वि [विस्मित] पाश्चर्य-चकित विओसिय वि [व्यवसित] पर्यवसित, समाप्त ५; उप १४२ टी)। २ मुद्रिका, अंगुलीयक,
| 'मोधुणइ दीवो विभ (?भि)प्रो व्व पवणाकिया हुआ (सूभ १, १, ३, ५) । गुजराती में 'वीटी'; 'उच्चारोवरि मुक्का
हमो सीसं' (वज्जा ६६, भवि) विओसिय वि [विकोशित] कोश-रहित,
करणयमयविटिया नियया' (सुपा ६११),
विभिअ देखो विअभि 'सोहग्गविभियासाए' निरावरण, नंगा: "विउ(?प्रो)सियवरासि-' 'पडिवन्नानो मणिविढि(?टि)याहि तह अंगु
(वज्जा ८६)। (पएह १, ३–पत्र ४५)। लीपो त्ति' (स ७६)
विंसदि (शौ) स्त्री [विंशति] बीस, २० विओसिर देखो विऊसिर (पि २३५)। तिर पुं [व्यन्तर] १ बिच्छू प्रादि दुष्ट जन्तु
(प्रयौ २०)। (उप ५६४); 'दुटुारण को न बीहइ वितर-विकंथ सकवि विओह ' [विबोध] जागरण, जागृति
+कत्था प्रशंसा करना। सप्पारण व खलाणं' (वजा १२) । २ एक (भवि)
विकंथइजा (सूम १, १४, २१)।
देव-जाति; "निस्सूगाणं नराणं हि वितरा अवि विख न [दे] वाद्य-विशेष (राज)।
विकंप अक [वि + कम्प] हिल जाना, किकरा' (श्रा १२, दं २) विचिणि वि[दे] १ पाटित, विदारित।
चलित होना । वकृ. विकंपमाणो (सूत्र १, विंतागी स्त्री [वृन्ताकी] बैंगन का गाछ - २ धारा (दे ७, ६३)
१४, १४) विंद सक [विद्] १ जानना । २ प्राप्त करना। विंचुअ पुं[वृश्चिक] जन्तु-विशेष, बिच्छू (हे
विकंप सक [वि + कम्पय् ] १ हिलाना, 'धम्मं च जे विदति तत्थ तत्थ (सूत्र १,१४,
चलाना । २ त्याग करना, छोड़ना । ३ अपने १, १२८, २, १६; ८६) २७) । वकृ. विंदमाण (णाया १, १-पत्र
मंडल से बाहर निकलना । ४ भीतर प्रवेश विछ प्रक [वि+ घट् ] अलग होना । विछ। २६%3 विपा १,२-पत्र ३४)
करना । विकंपइ (सुज्ज १, १)। संकृ. (प्राकृ ७१) विंद देखो बंद - वृन्द (भवि; पि ३६८)।
विकंपइत्ता (सुज्ज १, ६) विछिअ) देखो विंचअ (हे १, २६,२, विंदारग) देखो वंदारय (सुपा ५०३; नाटबिछुअ, १६ सुख ३६, १४८, पउम विंदारय शकु८८)4°वर पुं[वर] इन्द्र विकंप वि [विकम्प] कम्प, हिलन (पंचा ३६, १७ प्रापः प्राकृ २३ गा २३७ प्र) (सम्मत्त ७५)।
१८, १५)
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