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पाइअसहमहण्णवो
पाउंछण-पाओयर पाउंछण । न [प्रादप्रोग्छन, 'क] जैन ११, २१)। पाउणेजा (पाचा २,३,१,११) (दे)। गम पुं [गम] वर्षा-प्रारम्भ पाउंडणग मुनि का एक उपकरण, रजोहरण
भवि. पाउरिणस्सामि, पाउणिहिइ (पि ५३१ (पान)। (पब ११२ टी; मोघ ६३०; पंचा १७
उवा)। संकृ. पाउणित्ता (प्रौपः णाया १, पाउसिअ वि [प्रावृषिक] वर्षा-सम्बन्धी १२) ।
१; विपा २,१; कप्पः उवा)। हेकृ. पाउणि- (राज)। पाउकर सक[ प्रादुस् + कृ] प्रकट करना । |
त्तए (माचा २, ३, २, ११)।
पाउसिअ वि [प्रोपित, प्रवासिन्] प्रवास भवि. पाउकरिस्सामि (उत्त ११, १)। पाउण (अप) देखो पावण = पावन (पिंग)।
में गया हुआ, पाउकर वि [प्रादुष्कर] प्रादुर्भावक (सूत्र १, पाउत्त देखो पउत्त= प्रयुक्त (प्रौप)।
'तह मेहागमसंसियभागमणाणं पईण मुद्धाम्रो। १५, २५)।
मग्गमवलोयमारणीउ नियइ पाउसियदइयानो।' पाउकरण न [प्रादुष्कर ग] १ प्रादुर्भाव । २ पाउप्पभाय वि [प्रादुष्प्रभात] प्रभा-युक्त,
(सुपा ७०)। वि. जो प्रकाशित किया जाय वह । ३ जैन
प्रकाश-युक्त: 'कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए पारसिआ स्त्री प्रादेषिकी 1द्वेष-मत्सर मुनि के लिए एक भिक्षा-दोष, प्रकाश कर दी (णाया १,१; भग)।
से होनेवाला कर्म-बन्ध (सम १० ठा २, १; हुई भिक्षाः 'पकिरणपाउकरणपामिच्च' (पराह पाउसव अक [प्राडुस् + भू] प्रकट
भग; नव १७)। २,५-पत्र १४८)। होना । पाउन्भवद ( पब ४०)। भूका.
पाउहारी स्त्री [दे. पाकहारी] भक्त को पारका निपालाम] पीने की इच्छा पाउन्भविस्था (उवा)। वकृ. पाउब्भवंत,
लानेवाली, भात-पानी ले मानेवाली (गा वाला; 'तं जो रणं एवियाए माउयाए दुई
पाउब्भवमाण (मुपा ६ कुप्र २६ णाया पाउकामे से रणं निग्गच्छउ' (रणाया १,१८)। १, ५)। संकृ. पाउभवित्ताणं (उवाः
पाए प्र[दे] प्रभृति, (वहां से) शुरू करके पाउक वि [दे] मार्गीकृत, मागित (दे ६. प्रौप) । हेकृ पाउभवित्तए (पि ५७८)।
(ोघ १६६; बृह १)। पाउन्भव वि [पापोद्भव] पाप से उत्पन्न | पाए सक [पायय] पिलाना। पाएइ (हे पाउकरण देखो पाउकरण (राज)। (उप ७६८ टी)।
३, १४६) । पाएमाह (महा)। वकृ. पाइंत, पाक्खालय न [दे पायुक्षालक] १ पाउन्भवणा सा प्रादुभवन] प्रादुभाव (भग पाययंत (सुर १३, १३४, १२, १७१)। पाखाना, टट्टी. मलोत्सर्ग-स्थान; 'ठाइ चेव ३,१)।
संकृ. पारत्ता (पाक ३०)। एसो पाउवालयम्मि रयणार' (स २०५; पाउभुय (अप) नीचे देखो (सण)।
| पाए सक [पादय् ] गति कराना। पाएइ भत्त ११२)। २ मलोत्सर्ग-क्रिया; 'रयणीए पाउन्भूय वि [प्रादुर्भत] १ उत्पन्न, संजात। (हे ३, १४६)। पाउक्खालयनिमित्तमुट्ठिो ' (स २०५) । २ प्रकटित (प्रौपः भग; उवाः विपा १, १)। पाए सक [पाचय् ] पकवाना। पाएइ पाउन्ग वि [द] सभ्य. सभासद (दे ६, ४१;
पाउरण न [शावरण] वन, कपड़ा (सूअनि (हे ३, १४६)। कर्म. पाइजइ (श्रावक सरण)।
| ८६ हे १, १७५; पंचा ५, १०, पव ४, २००)। पाउम्ग वि [प्रायोग्य] उचित, लायक (सुर
पड्)।
पाएण) अप्रायेण] बहुत करके, प्रायः
पाएगं (विसे ११६६७ काल; कप्पः प्रासू पाउरण न [दे] कवच, वर्म (षड्)। १५, २३३)। पाउगह पुं [पतग्रह] पात्र ( प्राचानि पाचरणी स्त्री [2] कवच, वमं (दे ६, ४३) ।
४३)।
पाओ अ[प्रायस् ] ऊपर देखो (श्रा २७)। २८८)।
पारिअ देखो पाउड प्रावृत (कुप्र ४५२)। पाउगवि दि] १ जुना खेलानेवाला।
पाओ अ [प्रातस] प्रातःकाल, प्रभात पाउल वि [पापकुल हलके कुल का, जघन्य २ सोड, सहन किया हुआ (दे ६, ४१;
(सुज्ज १, ६; कप्प)। कुल में उत्पन्नः ‘दवावियं पाउलाण दविणपान। जायं' (स ६२९), 'कलसद्दपउरपाउलमंगल
पाओकरण देखो पाउकरण (पिंड २६८)। पाउड देखो पागय (प्राकृ १२; मुद्रा १२०)।
संगीयपवरपेक्ख गये' (सुर १०, ५)।
पाओग देखो पाउम्ग (सूअनि ६५) । पाउड वि [प्रावृत] १ आच्छादित, ढका हुआ
पाउल्ल न. देखो पाउआ, 'पाउल्लाई संकमाएं पाओगिय वि [प्रायोगिका प्रयत्न-जनित. (सून १, २, २, २२)। २ वस्त्र, कपड़ा (सूत्र १, ४, २, १५)।
अस्वाभाविक (चेइय ३५३)। (ठा ५,१)। पाउव न [पादोद] पाद-प्रक्षालन-जल,
पाओग्ग देखो पाउग्ग (भास १०; धर्मस पाउण सक [प्रा + वृ] आच्छादित करना,
पाउवदाई च रहाणुवदाई च (णाया १,
११८०)। पहिरना । पाउणइ (पिंड ३१) । संकृ. 'पडं ७--पत्र ११७)।
पाओपगम न [पादपोपगम देखो पाओपाउणिऊण रति णिग्गो' (महा)। पाउस पुं [प्रावृष्] वर्षा ऋतु (हे १, |
वगमण (वव १०)। पाउन सक [प्र + आप ] प्राप्त करना ।। १६; प्राप्र; महा)। कीड पुं [°कीट] पाओयर पुं [प्रादुष्कार] देखो पाउकरण पाउण (भग)। पाउणंति (प्रौपः सून १, वर्षा ऋतु में उत्पन्न होनेवाला कीट-विशेष । (ठा ३, ४ पंचा १३, ५) ।
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