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प्राकृत-वैयाकरणों ने भी य
-अलग निर्देश करते हुए का
अपभ्रंश कही गई है। यहा
में
(१०) अपभ्रंश महर्षि पतअलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि "भूयांसोऽपशब्दा मल्पीयांसः शब्दाः । एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः, सद्यथा-गौरित्यस्स शब्दस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्येवमादयोऽपभ्रशा:" अर्थात् अपशब्द बहुत और शब्द (शुद्ध) थोड़े हैं, क्योंकि एक एक शब्द के बहुत अपभ्रंश हैं, जैसे 'गौः' इस शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्यादि अपभ्रंश हैं।
म यहाँ पर 'अपभ्रंश' शब्द अपशब्द के अर्थ में ही व्यवहृत है और अपशब्द का अर्थ भी 'संस्कृतसामान्य और विशेष प्रर्थ व्याकरण स आसद्ध शब्द' है, य
- व्याकरण से असिद्ध शब्द' है, यह स्पष्ट है। उक्त उदाहरणों में 'गावी' और 'गोणी' ये दो शब्दों
का प्रयोग प्राचीन जैन-सूत्र-ग्रन्थों में पाया जाता है और चंड तथा आचार्य हेमचन्द्र आदि प्राकृत-वैयाकरणों ने भी ये दो शब्द अपने-अपने प्राकृत-व्याकरणों में लक्षण-द्वारा सिद्ध किये हैं। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में पहले प्राकृत और अपभ्रश का अलग-अलग निर्देश करते हुए काव्य में व्यवहृत आभीर-प्रभृति की भाषा को अपभ्रंश कही हैं और बाद में यह लिखा है कि 'शास्त्र में संस्कृत भिन्न सभी भाषाएँ अपभ्रश कही गई है। यहाँ पर दण्डी ने शास्त्र-शब्द का प्रयोग महाभाष्य-प्रभृति व्याकरण के अर्थ में ही किया है। पतञ्जलि-प्रभृति संस्कृत-वैयाकरणों के मत में संस्कृत-भिन्न सभी प्राकृत-भाषाएँ अपभ्रंश के अन्तर्गत हैं, यह ऊपर के उनके लेख से स्पष्ट है। परन्तु प्राकृत-वैयाकरणों के मत में अपभ्रंश भाषा प्राकृत का ही एक अवान्तर भेद है। काव्यालंकार की टीका में नमिसाधु ने लिखा है कि "प्राकृतमेवापभ्रंशः” (२, १२) अर्थात् अभ्रंश भी शौरसेनी, मागधी आदि की तरह एक प्रकार का प्राकृत ही है। उक्त क्रमिक उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि पतञ्जलि के समय में जिस अपभ्रंश शब्द का 'संस्कृत-व्याकरण-असिद्ध (कोई भी प्राकृत)' इस सामान्य अर्थ में प्रयोग होता था उसने आगे जाकर क्रमशः 'प्राकृत का एक भेद' इस विशेष अर्थ को धारण किया है। हमने भी यहाँ पर अपभ्रश शब्द का इस विशेष अर्थ में ही व्यवहार किया है।
अपभ्रंश भाषा के निदर्शन विक्रमोवंशी, धर्माभ्युदय आदि नाटक-ग्रन्थों में, हरिवंशपुराण, पउमचरिम (स्वयंभूदेवकृत) निदर्शन
भविसयत्तकहा, संजममंजरी, महापुराण, यशोधरचरित, नागकुमारचरित, कथाकोश, पाचपुराण, सुदर्शनचरित्र,
करकंडुचरित, जयतिहुप्रणस्तोत्र, विलासवईकहा, सणंकुमारचरिम, सुपासनाहचरित्र, कुमारपालचरित, कुमारपालप्रतिबोध, उपदेशतरंगिणी प्रभृति काव्यग्रन्थों में, प्राकृतलक्षण, सिद्धहेमचन्द्रव्याकरण (अष्टम अध्याय), संक्षिप्तसार, षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृतसर्वस्व वगैरह व्याकरणों में और प्राकृतपिङ्गल नामक छन्द-ग्रन्थ में पाये जाते हैं।
डॉ. हॉर्नलि के मत में जिस तरह आर्य लोगों की कथ्य भाषाएँ अनार्य लोगों के मुख से उच्चारित होने के कारण . जिस विकृत रूप को धारण कर पायी थीं वह पैशाची भाषा है और वह कोई भी प्रादेशिक भाषा
नहीं है, उस तरह आर्यों की कथ्य भाषाएँ भारत के आदिम-निवासी अनार्य लोगों की भित्र भिन्न भाषाओं के प्रभाव से जिन रूपान्तरों को प्राप्त हुई थीं वे ही भिन्न-भिन्न अपभ्रश भाषाएँ हैं और ये महाराष्ट्री की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। डॉ. हॉर्नलि के इस मत का सर ग्रियर्सन-प्रभृति आधुनिक भाषातत्त्वज्ञ म्वीकार नहीं करते हैं। सर ग्रियर्सन के मत में भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाएँ साहित्य और व्याकरण में नियन्त्रित होकर जन-साधारण में अप्रचलित होने के कारण जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई थी वे ही अपभ्रश हैं। ये अपभ्रश-आषाएँ ख्रिस्तीय पञ्चम शताब्दी के बहुत काल पूर्व से ही कथ्य भाषाओं के रूप में व्यवहृत होती थी, क्योंकि चण्ड के प्राकृत-व्याकरण में और कालिदास की विक्रमोर्वशी में इसके निदर्शन पाये जाने के कारण यह निश्चित है कि ख्रिस्तीय पञ्चम शताब्दी के पहले से ही ये साहित्य में स्थान पाने लगी थीं। ये अपभ्रश भाषाएँ प्रायः दशम शताब्दी पर्यन्त साहित्य की भाषाएँ थीं। इसके बाद फिर जनसाधारण में अप्रचलित होने से जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई वे ही हिन्दी, बंगला, गुजराती बगैरह आधुनिक
१. "खीरीणियानो गावीमो", "गोणं वियाल" ( आचा २, ४, ५)।
"णगरगावीप्रो" (विपा १, २--पत्र २६)।
"गोणीणं संगेल्लं" (व्यवहारसूत्र, उ० ४)। २. “गोर्वावी" (प्राकृतलक्षण २, १६)। ३. “गोरणादयः" (हे० प्रा० २, १७४) । ४. “भाभीरादिगिरः काव्येष्वपनश इति स्मृताः ।
शाने तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम्" (१, ३६)।
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