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से ही सभी प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई है, सुतरां महाराष्ट्री भाषा की उत्पत्ति प्राचीन काल के महाराष्ट्र निवासी आर्यों की कथ्य भाषा से हुई है ।
कौन समय आर्यों ने महाराष्ट्र में सर्व प्रथम निवास किया था, इस बात का निर्णय करना कठिन है, परन्तु अशोक के पहले प्राकृत भाषा महाराष्ट्र देश में प्रचलित थी, इस विषय में किसीका मतभेद नहीं है। उस समय महाराष्ट्र देश में प्रचलित प्राकृत से क्रमशः काव्यीय और नाटकीय महाराष्ट्री भाषा उत्पन्न हुई है । प्राकृतप्रकाश का कर्ता वररुचि यदि वृत्तिकार कात्यायन से अभिन्न व्यक्ति हो तो यह स्वीकार करना होगा कि महाराष्ट्री ने अन्ततः स्त्रिस्त-पूर्व दो सौ वर्ष के पहले ही साहित्य में स्थान पाया था । लेकिन महाराष्ट्री भाषा के तद्भव शब्दों में व्यञ्जन वर्णों के लोप की बहुलता देखने से यह विश्वास नहीं होता कि यह भाषा उतनी प्राचीन है । वररुचि का व्याकरण संभवतः स्त्रिस्त के बाद ही रचा गया है। जैन अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव का ह पहले उल्लेख किया है । महाराष्ट्री भाषा में रचित जो सब साहित्य इस समय पाया जाता है उसमें ख्रिस्त के बाद की महाराष्ट्री के ही निदर्शन देखे जाते हैं । प्राचीन महाराष्ट्री का कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है । प्राचीन महाराष्ट्री में बाद की महाराष्ट्री की तरह व्यजन वर्ग लोप की अधिकता नहीं थी, इस बात के कुछ निदर्शन चण्ड के व्याकरण में मिलते हैं। जैन अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री में प्राचीन महाराष्ट्री भाषा का सादृश्य रक्षित है।
समय
भरत ने नाट्यशास्त्र में आपन्ती और वाह लीकी भाषा का उल्लेख कर नाटकों में धूर्त पात्रों के लिए आयन्ती का भावन्ती र वाह्रीकी और यूतकारों के लिए वाह लीकी का प्रयोग कहा है। मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में 'आवन्ती महाराष्ट्री स्यान्महाराष्ट्रीशीर सेम्पोस्तु संरात्' और 'आपस्यामेव वा लोकी किन्तु रस्यात्र लो भवेत् यह कह
अन्तर्गत है कर इनका संक्षिप्त लक्षण-निर्देश किया है। मार्कण्डेय ने आवन्ती भाषा के जो खा के स्थान में तु और भविष्यत् काल के प्रत्यय के स्थान में ज और जा प्रभुति लक्षण बतलाए हैं वे महाराष्ट्रों के साथ साधारण हैं। उनके दिए हुए किराद, वेद, पेच्छदि प्रभृति उदाहरणों में जो तकार के स्थान में दकार है वहाँ शौरसेनी के साथ इसका आव का) सादृश्य है परन्तु वह भी सर्वत्र नहीं है, जैसे उनके दिए हुए हो, सुम्ब निज भरणा आदि उदाहरणों में इसी तरह बाह लीकी मैं जोर का ल होता है वही एकमात्र मागधी का सादृश्य है। इसके सिवा सभी अंशों में यह भी आयन्ती की तरह महाराष्ट्री के ही साहरा है सुतरां ये दोनों भाषाएँ महाराष्ट्री के ही अन्तर्गत कही जा सकती है। इससे हमने भी इनका इस कोष में अलग निर्देश नहीं किया है।
संस्कृत भाषा के साथ महाराष्ट्री भाषा के वे भेद नीचे दिए जाते हैं जो महाराष्ट्री और संस्कृत के साथ अन्य प्राकृत भाषाओं के सादृश्य और पार्थक्य की तुलना के लिए भी अधिक उपयुक्त हैं ।
लक्षरण
स्वर
१. अनेक जगह भिन्न स्वरों के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर होते हैं। जैसे—मृद्धि सामिद्धि, ईईसि हर हीर, ध्वनि झुणि, शय्या = सेज्जा, पद्म = पोम्म; यथा = जह सदा = सइ स्त्यान = थीए, सास्ना = सुरहा, आसार = ऊसार, ग्राह्य = गेज्झ, श्राली = श्रोली; इति इन, पथिन् = पह, जिह्वा = जीहा, द्विवचन = दुवऋण, पिण्ड = पेंड, द्विधाकृत = दोहा इन हरीतकी = हरडई, कश्मीर = कम्हार, पानीय = पाणिन, जीएं = जुराण, हीन : हूरा, पीयूष = पेऊस मुकुल = मउल, भ्रुकुटि = भिउडि, क्षुत = छीघ्र, मुसल = मूसल, तुण्ड = तोंड; सूक्ष्म = सरह, उद्वय ढ = उच्चीढ, वातूल = वाउल, नूपुर = खेउर, तूणीर = तोणीर; वेदना = विश्रणा, स्तेन = थूण; मनोहर = मगहर, गो = गउ, गानः सोच्छ्वास = सूसास । २. महाराष्ट्री में ऋ, ऋ, लृ, लृ ये स्वर सर्वथा लुप्त हो गये हैं ।
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३. ऋ के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर एवं
रि होता है; यथा - तृण = तण, मृदुक = माउक्क, कृपा = किवा, मातृ - माइ, माउ वृत्तान्त = वृतंत, मृषा मुसा, मूसा, मोसा वृन्त विट, वेंट, वोंट ऋतु उउ, रिउ ऋद्धि = रिद्धि, ऋक्ष रिच्छः सदृश = सरिस, दृप्त = दरिभ ।
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४. ट के स्थान में इलि होता है; जैसे- क्लुप्त = किलित्त, क्लुन्न = किलिएण |
ऐ का प्रयोग भी प्रायः महाराष्ट्री में नहीं है। उसके स्थान में सामान्यतः ए और विशेषतः श्रव होता है, यथा-
शैल = सेल, ऐरावण = एरावण, वैद्य - वेज, वैधव्य = वेहन्त्रः सैन्य = सेण्ण, सइराण, कैलाश = केलास, कइलासः दैव = देव्व, दइव ऐश्वयं = भइसरिभ, दैन्य = दइएण ।
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