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पाइअसहमहण्णवो
ठ-ठाण
ठ पुं[ठ] मूधं-स्थानीय व्यञ्जन वर्ण-विशेष ठरिअ वि [दे] १ गौरवित । २ ऊर्ध्व- ठविअ वि [स्थापित रखा हुआ, संस्थापित (प्रामाः प्राप) स्थित (दे ४, ६)
(षड् ; पि ५६४ ठा ५, २)। ठइअ वि [दे] १ उत्क्षिप्त, ऊपर फेंका ठलिय वि [दे] खाली, शून्य, रिक्त किया | ठविआ स्त्री [दे] प्रतिमा, मूर्ति, प्रतिकृति हुआ। २ पु. अवकाश (दे ४, ५)।
गया (सुपा २३७)। ठइअ वि [स्थगित] १ आच्छादित, ढका
ठल्ल वि[दे] निर्धन, धन-रहित, दरिद्र (दे ठविर देखो थविर पि १६६)। हुमा। २ बन्द किया हुआ, रुका हुआ (स १७३) ।
ठा अक [स्था] बैठना, स्थिर होना, रहना, ठव सक [स्थापय ] स्थापन करना। ठवइ, ठइअ देखो ठविअ (पिंग)।
गति का रुकाव करना । ठाइ, ठाअाइ (हे ४, ठंडिल्ल देखो थंडिल्ल (उव)। ठवेइ (पिंग; कप्प; महा) । ठवे (भग)। वकृ.
१६ षड्) । वकृ. ठायमाण (उप १३० ठवंत (रयण ६३) । संकृ. ठविउं,ठविऊण, ठंभ देखो थंभ = स्तम्भ । कर्म. ठंभिज्जइ |
टी) । संकृ. ठाइऊण, ठाऊण (पि ३०६ (हे २, ६) ठवित्ता, ठवित्तु, ठवेत्ता (पि ५७६; ५८६;
पंचा १८)। हेकृ. ठाइत्तए, ठाउं (कस; ठंभ देखो थंभ = स्तम्भ ( हे २, ६; षड् )। ५८२; प्रासू २७; पि ५८२)।
प्राव ५) । कृ. ठाणिज्ज, ठायव्य, ठाएठकुर । पु [ठक्कुर] १ ठाकुर, क्षत्रिय, ठवण न [स्थापन] स्थापन, संस्थापन (सुर
यव्य (णाया १, १४; सुपा ३०२; सुर ६, ठक्कुर राजपूत (स ५४८ सुपा ४१२ २, १७७)।
३३)। सट्ठि ९८)। २ ग्राम वगैरह का स्वामी, ठवणा स्त्री [स्थापना] १ प्रतिकृति, चित्र,
ठाइ वि [स्थायिन् ] रहनेवाला, स्थिर होनेनायक, मुखिया (प्रावम)।
मूत्ति, आकार (ठा २, ४; १०; अणु)। २
| वाला (ोप, कप्प)। ठक्कार [ठःकार] 'ठः' अक्षर 'तम्मि चलंते स्थापन, न्यास (ठा ४, ३)। ३ सांकेतिक
ठाएयव्य देखो ठा।.. करिमयसित्ताइ महीइ तुरगखुरसेरणी। लिहिया वस्तु, मुख्य वस्तु के अभाव या अनुपस्थिति
ठाएयव्व देखो ठाव। रिऊरण विजए मंतो ठक्कारपंति व्व' (धर्मवि में जिस किसी चीज में उसका संकेत किया
ठाण पुं[दे] मान, गवं, अभिमान (दे ४, २०)।
जाय वह वस्तु (विसे २६२७)। ४ जैन ठग सक स्थिग] बन्द करना, ढकना ।
साधुओं की भिक्षा का एक दोष, साधु को
ठाण पुंन [स्थान] १ स्थिति, अवस्थान, गति ठय । ठगेइ, ठएइ (सट्ठि २३ टी; सुख २, भिक्षा में देने के लिए रखी हुई वस्तु (ठा ३,
की निवृत्ति (सून १,५,१; बृह १)। २ स्वरूप४–पत्र १५६) । ५ अनुज्ञा, संमति (शंदि)।
प्राप्ति (सम्म १)। ३ निवास, रहना (सूत्र ठग पुं [ठक] ठग, धूर्त, वञ्चक (दे २, ६ पर्युषणा, आठ दिनों का जैन पर्व-विशेष
१, ११; निचू १)। ४ कारण, निमित्त, हेतु ५८; कुमा)। (निचू १०)। कुल पुन [कुल] भिक्षा के
(सूत्र १, १, २, ठा २, ४)। ५ पर्यंक ठगिय वि[दे] वञ्चित, ठगा हुआ, विप्र- लिए प्रतिषिद्ध कुल (निचू ४)1 °णय पुं
आदि प्रासन (राज)। ६ प्रकार, भेद (ठा तारित (सुपा १२४)। [ नय] स्थापन को ही प्रधान माननेवाला
१०; पाचू ४)। ७ पद, जगह (ठा १०)। ठगिय देखो ठइय = स्थगित (उप पृ ३८८)। मत (राज)। पुरिस पुं[°पुरुष पुरुष की
८ गुण, पर्याय, धर्म (ठा ५, ३; प्राव ४)। ठट्ठार पुं[दे] ताम्र, पितलमादि धातु के बर्तन मूर्ति या चित्र (ठा ३, १; सूत्र १, ४, १)।
६आश्रय, प्राधार, वसति, मकान, घर (ठा बनाकर जीविका चलानेवाला, ठठेरा (धर्म २)- यरिय पुं[चार्य जिस वस्तु में प्राचार्य
४, ३)। १० तृतीय जैन अंग-ग्रन्थ 'ठाणांग' ठड्ढ वि [स्तब्ध] हक्काबक्का, कुण्ठित, का संकेत किया जाय वह वस्तु (धर्म २)।
सूत्र (ठा १)। ११ ठारणांग' सूत्र का अध्ययन, जड़ (हे २, ३६ वज्जा ६२)।
सच्चन [ सत्थ] स्थापना-विषयक सत्य, परिच्छेद (ठा १,२,३,४,५)। १२ कायोत्सर्ग ठप्प वि [स्थाप्य स्थापनीय, स्थापन करने | जिन भगवान् की मूर्ति को जिन कहना यह (औप)। भट्र वि[भ्रष्ट] १ अपनी जगह योग्य (ोघ ६)।
स्थापना-सत्य है (ठा १०; परण ११)। से च्युत (णाया १, ६) । २ चारित्र से पतित ठय सक [स्थग्] बन्द करना, रोकना। ठवणा स्त्री [स्थापना] वासना (णंदि १७६)। (तंदु)1 इय वि [तिग] कायोत्सर्ग ठएंति (स १५६)।
ठवणी स्त्री [स्थापनी] न्यास, न्यास रूप से करनेवाला (प्रौप)। यय नायत] ठयण [स्थगन] १ रुकाव, अटकाव । २ वि.
__रखा हुपा द्रव्य (श्रा १४)। "मोस पुं ऊँचा स्थान (बृह ५)। रोकनेवाला । स्त्री. °णी (उप ६६९)
[मोष] न्यास की चोरी, न्यास का अपलाप; ठाण न [स्थान] १ कुंकण (कोंकण) देश का ठयण न [स्थगन] बन्द करना, 'अच्छिठयणं । 'दोहेसु मित्तदोहो, ठवरणीमोसो असेसमोसेसु' एक नगर (सिरि ६३६)। २ तेरह दिन च' (पंचा २, २५)। (धा १४)।
का लगातार उपवास (संबोध ५८)।
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