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कासिअ-किंजक पाइअसहमहण्णवो
२४१ ३ स्त्री. काशी नगरी, बनारस शहर (कुमा)। काहावण पु[कार्षापण] सिक्का-विशेष (हे किंकर पुं[किङ्कर] नौकर, चाकर, दास (सुपा 'पुर न [पुर] काशी नगरी, बनारस शहर २,७१ पराह १, २ षड्। (प्राप्र)। ६० २२३)। "सच पुं[सत्य] १ पर(पउम ६,१३७)। राय पुं[ राज] काशी काहिय वि[काथिक] कथा-कार, वार्ता करने मेश्वर, परमात्मा। २ अच्युत, विष्णु (प्रचु देश का राजा (उत्त १८)। व पुं[प] | वाला (बृह १)।
२)। काशी देश का राजा (प उम १०४, ११)। काहिल पुंदे] गोपाल, ग्वाला, स्त्री. ला किंकरी स्त्री [किङ्करी] दासी, नौकरानी 'वड्ढण पुं[°वर्धन] इस नाम का एक (दे २, ३८)।
(कप्पू)। राजा, जिसने भगवान महावीर के पास दीक्षा | काहिल्लिआ स्त्री [दे] तवा, जिसपर पूरी प्रादि किंकाइअ देखो केकाइय (अणु २१२) । ली थी (ठा ८--पत्र ४३०)। पकायी जाती है (पान)।
किंकायव्वया स्त्री [किंकर्तव्यता] क्या कासिअ न [दे] १ सूक्ष्म वन, बारीक | काहीअ देखो काहिय (गच्छ ३, ६)। करना है यह जानना। मूढ वि [ मूढ] कपड़ा। २ सफेद वस्त्र (दे २, ५६)। काहीइदाण न [कारिष्यतिदान] प्रत्युपकार किंकर्तव्य-विमूढ़, हक्काबक्का, भौंचक्का, वह कासिअन [कासित छींक, क्षुत् (राज)। की आशा से दिया जाता दान (ठा १०)। मनुष्य जिसे यह न सूझ पड़े कि क्या किया कासिज न [दे] काकस्थल-नामक देश (दे | काहे अ [कदा] कब, किस समय ? (हे २, जाय (महा)। २, २७)। | ६५; अंत २४ प्राप्र)।
| किंकार पुन [ऋकार] अव्यक्त शब्द-विशेष कासिल्ल वि[कासिक] खांसी रोगवाला (विपा काहेणु स्त्री [दे] गुजा, लाल रत्ती (दे २, (सिरि ५४१)। १,७–पत्र ७२)। २१)।
किंकिअ वि [A] सफेद, श्वेत (दे २, ३१) । कासी स्त्री [काशी] काशी, बनारस (गाया कि देखो किं ( हे १, २६; षड्)।
| किंकिञ्चजड वि [किंकृत्यजड] हक्काबका, १,८)। राय पुं[राज] काशी का राजा कि सक [कृ] करना, बनाना; 'डुकियं करणे
वह मनुष्य जिसे यह न सूझ पड़े कि क्या (पिंग)। स पुं [श] काशी का राजा (विसे ३३००)। कवकृ. किन्जत (सुर १,
किया जाय (श्रा २७)। (पिंग)। "सर पुं[श्वर] काशी का राजा ६०; ३, १४, ५६)।
किंकिणिआस्त्री [किङ्किणिका] क्षुद्र-घण्टिका, (पिंग)। किअ देखो कय = कृत (काप्र ६२५, प्रासू १५:
करधनी (सुपा १५६)। काह सक [कथय ] कहना । काहयंते (सूम
धम्म २४ मै ६५, वजा ४)।
किंकिणी स्त्री [किङ्किणी] ऊपर देखो (सुपा १,१३, ३)।
१५४; कुमा)। काहर देखो काहार (दस ४, १ टी)। किअ देखो किव = कृप (षड् )।
किंकिल्लि देखो कंकिल्लि (विचार ४६१)। किअंत वि [कियत् ] कितना (सण)। काहल वि [दे] १ मृदु, कोमल । २ ठग, धूर्त
किंगिरिड पुं[किङ्किरिट] क्षुद्र कीट-विशेष, (दे २, ५८)। किअंत देखो कयंत (अच्चु ५६)।
त्रीन्द्रिय जीव की एक जाति (राज)। काहल वि [कातर] कातर, डरपोक, अधीर किआडिआस्त्री [कृकाटिका गला का उन्नत किंचम [किञ्च] समुच्चय-द्योतक अव्यय, और (हे १, २१४० २५४)। भाग (पान)।
भी, दूसरा भी (सुर १, ४०; ४१)। काहल पुन [काहल] १ वाद्य-विशेष (सुर ३, किइ स्त्री [कृति] कृति, क्रिया, विधान (षडकिंचण न [किञ्चन] १ द्रव्य-हरण, चोरी ६६; प्रौपा एंदि)। २ अव्यक्त प्रावाज (पएह
प्रातः उव)। कम्म न [कर्मन्] १ वन्दन, (विसे ३४५१)। २ अ. कुछ, किश्चित् (बव
प्रणमन (सम २१)। २ कार्य-करण (भग काहला स्त्री [काहला] वाद्य-विशेष, महा
१४,३)। ३ विश्रामणा (व्यव० गा०६२)। किंचण न [किश्चन] द्रव्य, वस्तु (उत्त ३२, किं स [किम् ] कौन, क्या, क्यों, निन्दा,
-कि7 कौन क्या क्यों निन्दा ढक्का (विक्र ८७)।
,सुव ३२, ८)। काहलिया स्त्री [काहलिका] आभूषण-विशेष प्रश्न, अतिशय, अल्पता और सादृश्य को
किंचहिय वि [किञ्चिदधिक] कुछ ज्यादा (पव २७१)। बतलानेवाला शब्द (हे १, २६; ३, ५८;
(सुपा ४३०)। काहली स्त्री [दे] तरुणी, युवती (दे २,२६)। ७१ कुमाः विपा १, १; निचू १३); "किं किंचि अ [किञ्चित् ] अल्प, ईषत्, थोड़ा काहल्ली स्त्री [दे] १ खर्च करने का धान्यादि। बुल्लति मणीमो जाउ सहस्सेहि धिप्पंति' (जी १; स्वप्न ४७)। २ तवा, जिसपर पूरी या पूड़ी वगैरह पकायी | (प्रासू ४)। उण प्र[पुनः] तब फिर, किंचिम्मत्त वि [किञ्चिन्मात्र] स्वल्प, बहुत जाती है (दे २, ५६)। फिर क्या ? (प्राप्र)।
थोड़ा, यत्किञ्चित् (सुपा १४२)। काहार पुं[दे] कहार, एक जाति जो पानी किंकत्तव्यया देखो किंकायव्यया (पाचा २, किंचूण वि [किश्चिदून] कुछ कम, पूर्ण-प्राय भरने और डोली वगैरह ढोने का काम करती
(मोप)। है (दे २, २७ भवि)।
किंकम्म पुं[किंकर्मन्] इस नाम का एक किंजक पुं [किअल्क] पुष्प-रेणु, पराग काहार पुंन [३] काँवर, बहँगो (सुज १०,६)। गृहस्थ (अंत)।
(णाया १,१)। ३१
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