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१७२ पाइअसहमहण्णवो
उल्लेत्ता-उवकर उल्लेत्ता देखो उल्ल = आद्रय ।।
३ समस्तपन (राय)। ४ एकबार । ५ भीतर |
उवएसणया। स्त्री [उपदेशना] उपदेश उल्लेव पुं [दे] हास्य, हँसी (दे १, १०२)। (आव ४)।
उपएसणा । (राज; विसे २५८३)। उल्लेहड वि [दे] लम्पट, लुब्ध (दे १, १०४ | उव न [उद] पानी, जल; 'पाउवदाई च |
उवएसिय वि [उपदेशित] उपदिष्ट; 'सामापात्र) ।
रहाणुवदाई च' (पाया १,७.-पत्र ११७) इयाणज्जुात्त वाच्छ उवएसिय गुरुजणण उल्लोइय न [दे] १ पोतना, भीत को चूना | उवअंठ वि [उपकण्ठ] समीप का, प्रासन्न
(विसे १०८०; सण) वगैरह से सफेद करना (प्रौप)। २ वि. पोता । (गउड)।
उवओग पुं [उपयोग] १ ज्ञान, चैतन्य हुआ (गाया १, १; सम १३७) उवइट्ट वि [उपदिष्ट] कथित, प्रतिपादित,
(पएण १२; ठा ४, ४; दं ४)। २ ख्याल, उल्लोक वि [दे] त्रुटित, छिन्न (षड्) । शिक्षित (प्रोघ १४ भाः पि १७३)।।
ध्यान, सावधानी: 'तं पुण संविग्गेरणं उल्लोच पुं[दे. उल्लोच] चन्द्रातप, चांदनी उवइण्ण वि [उपवीर्ण] सेवित (३६)
उवोगजुएण तिव्वसद्धाए' (पंचा ४)। ३ (द १, ६८ सुर १२, १; उप १०७) । उवइय वि [उपचित] १ मांसल, पुष्ट (पएह
प्रयोजन, आवश्यकता (सुपा ६४३)। उल्लोढ सक [उल्लोध्रय] लोध्र आदि से १, ४)। २ उन्नत (ोप)।
उवओगि वि [उपयोगिन] उपयुक्त, योग्य, घिसना । उल्लोढिज्ज (पाचा २, १३, १) उवइय पुंस्त्री [दे] त्रीन्द्रिय जीव-विशेष, देखो
प्रयोजनीयः ‘पत्ताईण विसुद्धि साहेउं गिराहए उल्लोय पुं[उल्लोक] १ अगासो, छत (णाया ओवइय (जीव १ टो; परण)
जमुवप्रोगि' (सुपा ६४३; स ५)। १,१; कप्पः भग)। २ थोड़ी देर, थोड़ा | उबइस सक [उप + दिश] १ उपदेश देना,
उवंग पुन [उपाङ्ग] १ छोटा अवयव, क्षुद्र
भागः 'एवमादी सव्वे उबंगा भएणंति' (निचू सिखाना । २ प्रतिपादन करना। उवइसइ विलम्ब (राज) V
१)। २ ग्रन्थ-विशेष, मूल-ग्रन्थ के अंश-विशेष उल्लोय देखो उल्लोच (सुर ३, ७०% कमा) (पि १८४)। उवइसंति (भग) ।
को लेकर उसका विस्तार से वर्णन करनेउल्लोल अक [उत् + लुल् ] लुठना, लेटना। उवउंज सक [उप + युज् ] उपयोग करना ।
वाला ग्रन्थ, टीका: संगोवंगाणं सरहस्साणं कर्म. उवउज्जति (विसे ४८०) । संकृ. वकृ. उल्लोलंत (निचू १७)। पुं. शोकाकुल स्त्री-रुदन शब्द (चउ० सगरचरिय)। उवउंजिऊण, उवउज (पि ५८५; निचू १)।
चउण्हं वेयाणं' (प्रौप)। ३ 'औपपातिक' उल्लोल सक [उद् + लोलय ] पोंछना। उवउज पुं[दे] १ उपकार (दे १, १०८)।
सूत्र वगैरह बाहर जैन ग्रन्थ (कप्पा जा उल्लोलेइ, संकृ. उल्लोलेत्ता (प्राचा २, २ वि. उपकारक (षड् )।
१. सूक्त ७०)। | उवउत्त वि [उपयुक्त] १ न्याय्य, वाजबी ।
| उवंजग न [उपाञ्जन] मुक्षण, मालिश उल्लोल पुं[दे] १ शत्रु, दुश्मन (दे १, ६६)। २ सावधान, अप्रमत्त (उवः उप ७७३) ।
(पएह २, १)। उवऊढ वि [उपगूढ] प्रालिङ्गित (पान से
उवकंठ देखो उवअंठ (भवि) २ कोलाहल (पउम १६, ३६) उल्लोल पुं[उल्लोल] १ प्रबन्धः 'उद्देसे १, ३८; गा १३३)
उपकंठ न [उपकण्ठ] समीप (सिरि ११२१)। प्रासि णराहिवाण वियडा कहुल्लोला' (गउड)। उवजह सक [ उप+गूह. ] आलिङ्गन
उवकदुअ (शौ) अ [उपकृत्य उपकार
करके (प्राकृ८८) । २ वि. उद्भट, उद्धत; 'तरुणजणविन्भमुल्लोल- करना । उवऊहइ (प्राकृ ७४)। सागरे (स ६७)। ३ वि. उत्सुक; 'बहुसो | उवऊहण न [उपगृहन] प्रालिङ्गन (से ५,
उवकप्प सक [उप + क्लू] १ उपस्थित घडतविहडंतसइसुहासायसंगमुल्लोले। हियए
करना। २ करना; "उवकप्पइ करेइ उवणेइ ४८)IV च्चेय समप्पंति चंचला वीइवावारा' (गउड) । उवऊहिअ वि [उपगृहित] प्रालिङ्गित (गा
वा होंति एकट्टा' (पंचभा)। उवकप्पंति
(सूत्र १, ११) उल्लोब (अप) देखो उल्लोच (भवि)। ६२१)
उवकप्प ' [उपकल्प] साधु को दी जानेउहव सक [वि + ध्मापय् ] ठंढ़ा करना, उवएइआ स्त्री [दे] शराब परोसने का पात्र
वाली भिक्षा, अन्नपान वगैरह (पंचभा)। आग को बुझाना । उल्हवइ (हे ४, ४१६)। (दे १, ११८)।
उवकय वि [उपकृत ] जिसपर उपकार उल्हविय वि [दे.विध्मापित] बुझाया हुआ, उवएस पुं [उपदेश] १ शिक्षा, बोध (उव)।
किया गया हो वह, अनुगृहीत; 'अणुवकयपशान्त किया हुमा (पउम २, ६६)। २ कथन, प्रतिपादन । ३ शास्त्र, सिद्धान्त
राणुग्गहपरायणा' (प्राव ४)। उल्हसिअ वि [दे] उद्भट, उद्धत, (दे १,
(प्राचाः विसे ८६४)। ४ उपदेश्य, जिसके ११६) विषय में उपदेश दिया जाय वह (धर्म १)।
उवकय वि [दे] सज्जित, प्रगुण, तैयार
। (दे १,११६)V उल्हा अक [वि + मा] बुझ जाना । उल्लाइ
उवएसग वि[उपदेशक] उपदेश देनेवाला; उवकर देखो उवयर = उप + कृ। उवकरेउ (स २८३) 'हिच्चाणं पुवसंजोगं, सिया किचोवएसगा'
(उवा)। उव प्र[उप] निम्न लिखित अर्थों का सूचक | (सूत्र १, १)।
उवकर सक [अव + कृ] व्याप्त करना । अव्यय-१ समीपता; 'उवदसिय (पएण उवएसण न [उपदेशन] देखो उवएस | भूका. 'महवा पंसुरणा उबकरिसु' (भाचा १, १)। २ सदृशता, तुल्यता (उत्त ३)। (उत्त २८ ठा ७ विसे २५८३) ।
६, ३, ११)IV
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