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१६६ पाइअसदमहण्णवो
उब्बुक्क उभिग उब्बुक्क सक [ उद् +बुक्क् ] बोलना, कहना। उब्भग्ग वि [दे] गुण्ठित. व्याप्तः 'तिमि- उब्भालिअ वि [दे] सूप आदि से साफ किया उब्बुक्कइ (हे ४, २) रोब्भग्गणिसाए' (दे १, ६५; नाट)
हुप्रा, उत्पूतः 'उब्भालिग्रं उप्पुरिण' (पान)। उब्बुक्क न [दे]१ प्रलपित, प्रलाप । २ उम्भजि स्त्री [दे] कोद्रव-समह (राज) ।
उब्भाव अक [ रम् ] क्रीड़ा करना, खेलना । संकट । ३ बलात्कार (दे १, १२८) उन्भड वि [उद्भट] १ प्रबल, प्रचण्ड उम्भावइ (हे ४,१६८ षड् )। वकृ. उब्भाउब्बुड अक [ उद् + ब्रुड् ] तैरना । 'उब्भडपवरणपकं पिरजयप्पडागाइ अइपयर्ड' वंत (कुमा) उब्बुड [उद्बुड] तैरना। निबुड, (सुपा ४६ ); 'उब्भडकल्लोलभीसणारावे'
उब्भावणया। स्त्री [उद्भावना] १ प्रभाउब्बुड्ड) निब्बुड्डण न [निब्रुड, ण] (गमि ४)। २ भयंकर, विकराल (भग ७, उन्भावणा वना, गौरव, उन्नतिः 'पवयणउभचुभ करना (पएह १,३; उप १२८ टी) ६)। ३ उद्धत, आडंबरी (पान);
उब्भावण्या ' (ठा १०--पत्र ५१४)। २ उब्बुड्ड वि [उद्बुडित उन्मग्न, तीर्ण (गा | अइरोसो अडतोसो प्रदामो
उत्प्रेक्षा, वितर्कणाः 'असब्भावउब्भावणाहिं' ३७; स ३६०)।
दुजरोहिं संवासो। (णाया १, १२-पत्र १७४) । ३ प्रकाशन, उब्बुड्डण न [उद्ब्रुडन] उन्मज्जन (कप्पू) अइउन्भडो य वेसो पंचवि
प्रकटीकरण (पंदि)।V उब्बुह अक [ उत् + क्षुभ् ] संक्षुब्ध होना।
गरुयंपि लहुअंति।' (धम्म) उब्भाविअ न [रमण सुरत, क्रीडा, संभोग उब्बुहइ (प्राकृ ७५) ।
। उब्भम उद्भ्रम १ उद्वेग २ परिभ्रमण (दे १, ११७) उब्बूर वि [दे] १ अधिक, ज्यादा। २ पुं. (नाट)।
उब्भास सक [उद् + भासय ] प्रकासंघात, समूह । ३ स्थपुट, विषमोन्नत प्रदेश | उन्भव अक [उद् + भू] उत्पन्न होना।
शित करना । वकृ. उब्भासंत, उब्भात (दे १, १२६)। उब्भवइ (पि ४७५; नाट)। वकृ. उब्भवंत
(पउम २८, ३६, ३, १५५) । उम्भ सक [ ऊर्ध्वय ] ऊँचा करना, खड़ा (सुपा ५७१, ६५६) । करना। उन्भेउ ( वज्जा ६४), उभेह ! उब्भव अक [ऊर्ध्वय ] ऊँचा करना, खड़ा
उब्भासिय वि [उद्भासित] प्रकाशित (महा) V करना।
(हेका २८२); उब्भ देखो उड्ढ़ (हे २, ५६; सुर २,६;
उब्भव [उद्भव उत्पत्ति, प्रादुर्भाव (विसे 'भवरणाप्रो नीहरते जिणम्मि णाया १,२)
चाउविहेहिं देवेहि । उन्भंड पुं [उद्भाण्ड] १ उत्कट भौड़,
उन्भविय वि [ऊधित] ऊँचा किया हुआ इंतेहि य जंतेहि य बहुरूपा, निलंब हंडा, उन विदूषक; (उप पृ १३० वज्जा १४)
कहमिव उब्भासियं गयणं ।' 'खरउत्ति कहं जारणसि उब्भाअ वि [दे] शान्त, ठंढा (दे १, ६६)
(सुपा ७७)। देहागारा कहिति से हंदि।
उब्भाम सक [उद् + भ्रामय् ] घुमाना। उन्भासुअ वि [दे] शोभाहीन (दे १, उभामेइ (राय १२६)
११०) छिक्कोवण उन्भंडो
उब्भाम पुं [उद्भ्राम] १ प्ररिभ्रमण (ठा ___णीयासि दारुणसहावो। (ठा ६ टी)।
उन्भासेंत देखो उब्भास ४)। २ वि. परिभ्रमण करनेवाला (वव २ न. गाली, कुत्सित-वचनः 'उन्भंडवयण-'
उब्भि देखो उब्भिय = उद्भिद् (प्राचा)। (भवि) उन्मामइल्ला स्त्री [उद्भ्रामिणी] स्वैरिणी,
उब्भिउडि वि [उद्धृकुटि] भौंह चढ़ाया उभंत विदे] ग्लान, बीमार (दे १, ६५;
हुआ (गउड)। कुलटा स्त्री (वव ४ बृह ६) महा)। उब्भामय पुं [उद्भ्रामक जार, उपपति
उब्भिज्जा स्त्री [उभेद्या] भाजी, एक उब्भंत वि [उद्भ्रान्त] १ प्राकुल, व्याकुल, (पिंड ४२०)
तरह का शाक (पिंड ६२४)। खिन्न (दे १, १४३); उब्भामग पुं [उद्भ्रामक] १ पारदारिक,
उब्भिंद सक [उद् + भिद्] १ ऊँचा करना, 'अवलंबह मा संकह इमा गहलंघिया
परस्त्री-लम्पट (ोघ १० भा)। २ वायु-विशेष,
| खड़ा करना । २ विकसित करना। ३ अंकुपरिभमइ। अत्थक्कगज्जिउभंतहित्थहिममा
जो तुरण वगैरह को ऊपर ले उड़ता है (जी रित करना। ४ खोलना। कर्म. उभिज्जंति । पहिमजामा' (३८६); 'भवभमणुभंतमा
७) । ३ वि. परिभ्रमण करनेवाला (वव १) वकृ. उभिंदमाण (प्राचा २, ७)। णसा अम्हे' (सुर १५, १२३) । २ मूच्छित उम्भामिगा। स्त्री [उद्भ्रामिका] कुलटा
कवकृ. 'भत्तिभरनिन्भरुब्भिज्जमाणघणपुलय(से १,८) । ३ भ्रान्तियुक्त, भौचक्का, चकित
उब्भामिया । स्त्री, स्वैरिणी (वय ६, उप पूरियसरीरा' (सुपा ६५६ ६७ भग १६, ६)। (हे २, १६४)IV पृ २६४)।
संकृ. उभिंदिय, उभिदिउं (पंचा १३; उभंत पुं[उद्भ्रान्त] प्रथम नरक-पृथिवी उब्भालण न [दे] १ सूप प्रादि से साफ- पि ५७४) का चौथा नरकेन्द्रक-एक नरक-स्थान सुथरा करना, उत्पवन । २ वि. अपूर्व, अद्वि- उब्भिग देखो उब्भिय = उद्भिद् (पएह १, देवेन्द्र ३)IV
तीय (दे, १, १०३)
षड्)
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