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पाइअसहमहण्णवो
उत्ताल-उत्थंघ
पगाहि उत्ताल' (ठा ७); 'भीयं दुयमुप्पिच्छ- उत्तिटू अक [उत् + स्था] १ उठाना । २ उत्तुप्पिय वि [दे] स्निग्ध, चिकना (विपा त्यमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं' (जीव ३)। उदित होना । वकृ. 'उत्तिट्ठन्ते दिवायर (उत्त उत्ताल न [दे] लगातार रुदन, अन्तर-रहित ११, २४)।
उत्तुय सक [उत् + तुद पीड़ा करना, क्रन्दन की आवाज (दे १,१०१)। . उत्तिण वि [उत्तृण] तृण-शून्य
हैरान करना। वकृ. उत्तुयंत (विपा १, ७)। उत्तालण देखो उत्ताडण ।
"झंझावाउत्तिणधरविवर
उत्तरिद्धि स्त्री [दे] गवं, अभिमान । २ वि. उत्तावल न [दे] उतावल, शीघ्रता । २ वि.
पलोटेंतसलिलधाराहि । गवित, अभिमानी (दे १, ६६) शोधकारी, आकुल; 'हल्लुत्तावलिगिहदासिवि- कुड्डलिहियोहिदिअहं
उत्तुर्व वि [दे दृष्ट, देखा हुआ (षड्)। हियतकालकरणिज्जे' (सुर १०, १)।
रक्खइ अज्जा करअलेहि
| उत्तहिअ वि [दे] उत्खाटित, छिन्न, नट उत्तास सक [उत् + त्रासय] १ भयभीत
(गा १७०)।
(द १,१०५:१११)।। करना, डराना। २पीड़ना, हैरान करना। | उत्तिांणा वि[उचाणित] तृण-रहित किया उन्न
ह दे] किनारा-रहित इनारा, तटउत्तासेदि (शौ) (नाट) । कृ.उत्तासणिज्ज
हुआ, 'झंझावाउत्तिरिणए घरम्मि' (गा १३५)।५ शून्य कूप (दे १, ६४)। (तंदु)
उत्तिण वि [उत्तीर्ण] १ बाहर निकला हमा, उत्तेज वि[उत्तेजस् ] १ तेजस्वी, प्रखर । उत्तास पुं [उत्त्रास] १ त्रास, भय । २ 'उत्तिगणा तलागायो' (महा)। दिठं च महा- २ पुं. मात्रावृत्त का एक भेद (पिंग नाट)। हैरानी (कप्पू)। सरवरं, मज्जिनो जहाविहि तम्मि, उत्तिएणो
उत्तेअण न [उत्तेजन] उत्तेजन (मुद्रा१९८)। उत्तासइत्तु वि [उत्त्रासयित] १ भय-भीत य उत्तरपच्छिमतीरें (महा)। २ पार पहुंचा
| उत्तेइअ वि [उत्तेजित उद्दीपित, प्रोत्साकरनेवाला। २ हैरान करनेवाला (प्राचा)। हुना, पार-प्राप्त (स ३३२); "उत्तिएगा
उत्तजिअ हित, प्रेरित (दस ३ पान)
उत्तेड पुंद] बिन्दु ( पिण्ड १६); उत्तासणअ । वि [उत्त्रासनक] १ भयंकर, | समुई, पत्ता वीयभयं' (महा)। ३ जो कम
उत्तेडय'सितो य एसो घडउत्तडएहि (स उत्तासणगउद्वेग-जनक । २ हैरान करने- हुआ हो; 'संचरइ चिरपडिग्गहलायरएत्तिवाला (पउम २२, ३५; रणाया १, ८)
२६४) । सरणवेससोहग्गो' (गउड)। ४ रहित, 'सोहइ
उत्थ न [उक्थ] १ स्तोत्र-विशेष । २ योगउत्तासिय वि [उत्त्रासित] १ हैरान किया अदोसभावो गुरणोव्व जइ होइ मच्छरुत्तिएरणो |
विशेष (विसे) । हुआ । २ भयभीत किया हुआ (सुर १, २४७० (गउड)। ५ निपटा हुआ, जिसने कार्य समाप्त
उत्थ वि [उत्थ] उत्पन्न, उत्थित (सुपा प्राव ४)V किया हो वहः ‘रहाणुत्तिएणाए' (गा ५५५)। |
१९६; गउड )। उत्ताहिय वि [दे] उत्क्षिप्त, फेंका हुआ (दे ६ उल्लंधित, प्रतिक्रान्त (राज)
उत्थ (शौ) देखो उट्र % उत् + स्था। उत्थेदि १, १०६) । उत्तिण्ण वि [अवतीर्ण] १ नीचे उतरा हुआ,
(प्राकृ ९४) उत्ति स्त्री [उक्ति] वचन, वाणी (था १४ | _ 'रायादक्खो, तेण साहा गहिया, उत्तिएणो, सुपा २३; कप्पू)।। निराणंदो किंकायब्वविमूढ़ो गमो चं' (महा। उत्थइय वि [अवस्तृत] १ व्याप्त (से ४,
३८)। २ प्रसारित, फैलाया हुआ। ३ उत्तिंग [उत्तिङ्ग] १ गर्दभाकार कीट-विशेष उत्तित्थ पुंन [उत्तीथे] कुपथ, अपमार्ग (भवि)
आच्छादित; 'प्रच्छरगमउयमसूरगउच्छ- (? (धर्म २; निचू १३)। २ चींटियों का उत्तिम देखो उत्तम (षड् ; पि १०१; हे १,
स्थ)-इयं भद्दासणं रयावेई (गाया १, १; बिल; 'उत्तिंगपणगदगमट्टीमक्कडासंताणासंक- ४१; निचू १)। मणे (पडि)। ३ चोटियों की सन्तान (दसा उत्तिमंग देखो उत्तमंग (महा; पि १०१)।
पि ३०६)
उत्थंगिअ देखो उत्थंधिअ = उत्तम्भित (पि ३)। ४ तृण के अग्रभाग पर स्थित जल-बिंदु उत्तिन्न देखो उत्तिण्ण (काप्र १४६; कुमा)।
५०५) । (प्राचा)। ५ वनस्पति-विशेष, सर्पच्छत्रा, !
उत्तिरिविडि । स्त्री [दे] भाजन वगैरह का गुजराती में जिसको 'बिलाडी नी टोप' कहते हैं।
उत्थंघ सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना, उत्तिवडा ऊँचा ढेर, भाजनों की थप्पी 'गहरणेसु न चिट्ठिज्जा,
उन्नत करना । उत्थंघइ (हे ४, ३६) । गुजराती में जिसको 'उतरेवड' कहते हैं (दे बीएसु हरिएसु वा। १, १२२); ‘फोडेइ बिरालो लोलयाए सारेवि |
उत्थंध सक [उत् + स्तम्भ ] १ उठाना । उदगम्मि तहा निच्चं, उत्तिवडं' (उप ७२८ टी)।
२ अवलम्बन देना। ३ रोकना (गउड से उत्तिगपरणगेसु वा' (दस ८,११)। उत्तंग वि [उत्तुङ्ग] ऊंचा, उन्नत (महा;
५, ६)। उत्थघेइ (गा ७२४)। ६ न. छिद्र, विवर, रन्ध्र (निचू १८ आचा कप्पू गउड)।
उत्थंघ सक [ उत् + क्षिप्] ऊँचा फेंकना । २, ३, १, १६) । लोण न [°लयन] कीट
उत्तुंड वि [उत्तुण्ड] उन्मुख, ऊर्ध्व-मुख उत्थंघइ (हे ४, १४४)। संकृ. उत्थंघिअ विशेष का गृह-बिल (कप्प)
(गउड) उत्तिंगपणग पुंन [उत्तिङ्गपनक] कोटिका- उत्तुण वि [दे] गर्द-युक्त, दृप्त, अभिमानी नगर, चीटियों का बिल (दास ५, १, ५६) (दे १, ६६ गउड)।
(कुमा)।
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