________________
१५३
उड्ढं-उत्तण
पाइअसहमण्णवो श्वक्षणश्चक्षणिका (इक)। "लोग, लोय पुं संकृ. उण्णमिय (आचा २, १, ५) उण्हवण न [उष्णन] गरम करना (पिंड r°लोक] स्वर्ग, देव-लोक (ठा ५, ३, भग)। उण्णम वि [दे] समुन्नत, ऊँचा (दे १,८८) २४०)। 'वाय [वात] ऊँचा गया हुआ वायु, | उण्णय वि [उन्नत] १ उन्नत, ऊँचा (अभि उण्हिआ स्त्री [दे] कृसर, खिचड़ी (दे वायु-विशेष (जीव १)।
२०६) । २ गुणवान्, गुणी (णाया १,१)। १,८८)। उड्ढं ऊपर देखो, 'उड्ढंजाण अहोसिरे झारण- ३ अभिमानी (सूत्र १, १६)। ४ न. अभि- उण्हीस पुंन [उष्णीष] पगड़ी, मुकुट ( हे कोट्ठोवगए' (भग १, १: महा था ३३) । मान, गर्व (भग १२, ५)।
२,७५)। उड्ढंक न [दे] मार्ग का उन्नत भू-भाग (सूत्र
उण्णय पुं[उन्नय नीति का प्रभाव (भग उण्होदयभंड पुंदे] भ्रमर, भमरा, भौंरा (दे १, २) ।।
१२, ५)
| १,१२०) उडूढल) पुं[दे] उल्लास, विकास (दे १,
उण्णा स्त्री [ऊ] ऊन, भेड़ के रोम | उण्होला स्त्री दे] कीट-विशेष (आवम)।उड्ढल्ल ६१)
(प्रावम)। पिपीलिया स्त्री ["पिपीलिका] उताहो अ[उताहो अथवा, या (वि ८५)। उड्ढविय वि [ऊधित] ऊँचा किया हुआ चींटी, जन्तु-विशेष (दे ६,४८) ।
उत्त वि [उक्त] कथित, अभिहित (सुर १०, (वजा १४६) ।
उण्णाअक वि [उन्नायक] १ उन्नति-कारक । ७६; स ३७६) उड्ढा स्त्री [ऊध्वा] ऊध्वं-दिशा (ठा ६)। २ पुन, छन्दःशास्त्र प्रसिद्ध मध्य-गुरु चतुष्कल | उत्त वि [उत] १ बोया हुआ। २ निष्पादित, उड्ढि [दे] देखो उद्धि (सुज १०, ८)। की संज्ञा (पिंग)।
उत्पादितः 'देवउत्त अए लोए बंभउत्तेति उड्ढि देखो बुड्ढि (षड् )। उण्णाग पुं[उन्नाक] ग्राम-विशेष (प्रावम)
यावर' (सूत्र १, १, ३) उड्ढि देखो इद्धि ( षड् )। उण्णाम पुं [उन्नाम] १ उन्नति, ऊँचाई (से.
उत्त पु[दे] वनस्पति-विशेष (राज) उड्ढिय देखो उद्धरिअ = उद्धृत (रंभा)।
उत्त वि [गुप्त] रक्षित (सूअ १, १, ३, ५)। ६, ५६)। २ गर्व, अभिभान । १ गर्व का उड्ढिया स्त्री [दे] १ पात्र-विशेष (स १७३)।
उत्त देखो पुत्त (गा ८४ सुर ७, १५८)। कारण-भूत कर्म (भग १२, ५)V २ कम्बल वगैरह ओढ़ने का वस्त्र (स ५८६) अण्णाम सक [ उद+नमय 1 ऊँचा करना उत्तइयो वि [उत्तेजित] (दश. नि. गा. उणं देखो पुण = पुनर् (पिंड ८२)।
उत्तुइय) १११. अग) TV (से ४, ५६) उण न [ऋण] ऋण, करजा (षड् )। उण्णामिय वि [उन्नमित] ऊँचा किया
उत्तंघ देखो उत्थंघ = रुध् । उत्तंघइ (हे ४, उण । देखो पुण (प्रामाः प्रासू ६१, कुमा; हुआ ( गा १६, २५६; से ६, ७१) ।।
उत्तंघ देखो उत्तंभ । उत्तंघइ (प्राकृ ७०) उण्णाल सक [उद् + नमय ] ऊँचा करना। उणपन्न स्त्रीन [ एकोनपञ्चाशत् ] उनचास, उरणालइ (प्राकृ ७५) ।
उत्तंत देखो वुत्तंत (षड् ; विक्र ३६)। ४६ (देवेन्द्र ६६) ।
उण्णालिय वि [दे] १ कृश, दुर्बल । २ उत्तंपिअ वि [दे] खिन्न, उद्विग्न (दे १, उणाइ पुं [उणादि] व्याकरण का एक | उन्नमित, ऊँचा किया हुआ (दे १, १३६) १०२)। प्रकरण (पएह २, २)। उण्णिअ वि [उन्नीत] वितकित; विचारित
उत्तंभ सक [उत् + स्तम्भ ] १ रोकना । उणाइ पुं[दे] प्रिय, पति, नायक; 'उणाइ
२ अवलम्बन देना, सहारा देना। कर्म. (से १३,७७)। साहढोल्लाः प्रियार्थे' (संक्षि ४७)।
उत्तंभिज्जइ, उत्तंभिज्जेंति (पि ३०८)। उण्णिअ वि [और्णिक] ऊन का बना हुआ उणो देखो पुण (गउड पि ३४२; हे १,६५) ।। (ठा ६, ३; ओघ ७०६; ८६ भा)।
उत्तंभण न [उत्तम्भन] १ अवरोध । २ उण्ण न [ऊर्ण] भेड़ या बकरी के रोम,
अवलम्बन (उप पू२२१)।। रोआँ। देखो उन्न। कप्पास पुं[कापास] उण्णिद वि [उन्निद्र] १ विकसित, उल्लसित
उत्तंभय वि [उत्तम्भक १ रोकनेवाला। ऊन, भेड़ के रोम (निचू १)। णाभ पुं (गउड)। २ निद्रा-रहित (माल ८५)।
२ अवलम्बन देनेवाला, सहायक (उप पृ [नाभ] मकड़ी, कीट-विशेष (राज)। उण्णी सक [उद् + नी] १ ऊँचा ले जाना।
२२०) 'उण्ण देखो पुण्ण = पूर्ण (से ८, ६१, ६५)। |
२ कहना। भवि. उपरणेहं (विसे ३५८५)।
उत्तंस पु[अवतंस] शिरो-भूषण, अवतंस उण्णअ सक [उद्+ नद्] पुकारना, आह्वान कवकृ. उण्ण इज्जमाण (राज)।
(गउड दे २, ५७)। करना । उरणइ (प्रकृ ७४)।
उण्णुइअ पुं[दे] १ हुँकार । २ आकाश की उत्तंस पुं[उत्तंस] कर्णपूरक, कनफूल, कर्णउण्णइ स्त्री [उन्नति] उन्नति, अभ्युदय (गा
तरफ मुँह किए हुए कुत्ते की आवाज (दे |
आवाज (द भूषण (पान)। ४६७) ।
१, १३२) । ३ वि. गर्वित; 'एवं भरिणो संतो उत्तइय वि [दे] उत्तेजित, अधिक दीपित उण्णइज्जमाण देखो उण्णो।
उगाइयो सो कहेइ सव्वं तु' (वव २, १०) (दसनि ३, ३५) । उण्णम अक [उदु + नम्] ऊंचा होना, उण्ह पुं [उष्ण] १ प्रातप, गरमी (णाया | उत्तण वि [दे] गर्वित (सट्ठि ५६ टी)। उन्नत होना । वकृ. उण्णमंत (पि १६६)। १,१)। २ वि. गरम, तप्त (कुमा)। देखो उत्तुण।
उणा
हे १,६५)।
२०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org