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यद्यपि मेरी मातृभाषा हिन्दी नहीं है तथापि वही एकमात्र भारतवर्ष की सर्वाधिक व्यापक और इसलिए राष्ट्र-भाषा के योग्य होने के कारण यहाँ अर्थ के लिए विशेष उपयुक्त समझी गई है।
अन्त में, पार्ष से लेकर अपभ्रश तक की प्राकृत भाषाओं के विविध-विषयक जैन एवं जैनेतर प्राचीन ग्रंथों के (जिनकी कुल संख्या ढाई सौ से भी ज्यादा है) अतिविशाल शब्द-राशि से, संस्कृत प्रतिशब्दों से, हिन्दी अर्थों से, सभी आवश्यक अवतरणों से और संपूर्ण प्रमाणों से परिपूर्ण इस बृहत् प्राकृत-कोष में, यथेष्ट सावधानता रखने पर भी, जो कुछ मनुष्य-स्वभाव-सुलभ त्रुटिया या भूलें हुई हों उनको सुधारने के लिए विद्वानों से नम्र प्रार्थना करता हुप्रा यह अाशा रखता हूँ कि वे ऐसी भूलों के विषय में मुझे सतर्क करेंगे ताकि द्वितीयावृत्ति में तद्नुसार संशोधन का कार्य सरल हो पड़े । जो विद्वान् मेरे भ्रम-प्रमादों की प्रामाणिक पद्धति से सूचना देंगे, मैं उनका चिर-कृतज्ञ रहूँगा।
यदि मेरी इस कृति से, प्राकृत-साहित्य के अभ्यास में थोड़ी भी सहायता पहुँचेगी तो मैं अपने इस दोघ-काल-व्यापी परिश्रम को सफल समदूंगा।
कलकत्ता ता०३९-१.२८
हरगोविन्द दास टि. सेठ
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